Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

१३४ प्रगट करे तो उसने द्रव्यदृष्टि यथार्थ प्रगट की है। ऐसी ज्ञायककी परिणति अंतरमें-से प्रगट करे तो वह ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री है। तो उसमें-से उसे आत्माका स्वरूप जो आनन्द स्वरूप है, आनन्द जिसका रूप है, ऐसा जो चैतन्य जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शनस्वरूप है ऐसा जो आत्मा, उसमें उसे वह प्रगट होता है। ऐसी भेदज्ञानकी जिसे प्रगट हो, बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास अंतर-से परिणति प्रगट करके विकल्प टूटकर अंतरमें ज्ञायक हूँ उस रूप लीनता करे, तो आनन्द जिसका रूप है, आनन्दस्वरूप जिसका एक रूप है, ऐसा ज्ञानस्वभाव उसे खील उठता है। वह स्वयं निर्विकल्प स्वरूपमें लीन हो तो उसमें-से खील उठता है।

गुरुदेव वही कहते थे कि उसमें ज्ञायक प्रकाशित हो उठे, उस प्रकार-से उसकी ज्ञाननय, क्रियानयकी मैत्री-से चैतन्यको उस तरह वह ग्रहण करता है और उस प्रकार वह अभ्यास करता है तो वह प्रगट होता है। ऐसा अनन्त ज्ञान जिसका स्वरूप है, अचल जिसकी ज्योत है, कि जिसकी ज्योत, जिसका वीर्य अनन्त है, जो अन्दरमें सुस्थितपने संयमरूप वर्ते ऐसा आत्मा प्रगट होता है।

पहले अंश प्रगट हो, स्वानुभूति हो, उसका प्रभात हो और फिर स्वयं अखण्ड अनन्त शक्तियोँ-से भरपूर पूर्ण स्वरूप है। परन्तु उसका प्रभात होने-से पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता ही है। इसलिये पूर्ण केवलज्ञान उसमें-से प्रगट होता है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त बल, और आनन्द जिसका रूप है, जिसका रूप आनन्द है ऐसा आत्मा प्रगट होता है। स्वानुभूतिमें भी जिसका आनन्द रूप है ऐसा आत्मा प्रगट होता है। और पूर्ण दशामें जिसका आनन्द रूप है, वैसा आत्मा प्रगट होता है। अनन्त ज्ञान- से भरा आत्मा है कि जिसका कोई पार नहीं है ऐसा अनन्त ज्ञान है, ऐसा अनन्त दर्शन है, ऐसा अनन्त बल है, ऐसा अनन्त वीर्य है। ऐसा अनन्त-अनन्त उसे प्रगट होता है।

बाकी प्रगट नहीं होता है, (क्योंकि) वह बाहरमें रुक गया है। ज्ञाता और ज्ञेयकी एकताबुद्धि (कर रहा है)। जो ज्ञेय ज्ञात होता है और मैं, उसे भिन्न नहीं करता है। एकतामें रुक गया है। बाहरमें कर्ताबुद्धिमें, बाह्य क्रियाओँमें मानों मैंने बहुत किया, उसमें रुक गया है। ऐसे सबमें रुक गया है। रागकी क्रियाओंमें राग और मैं दोनों एक हैं, ऐसे रुक गया है। उससे भिन्न पडे कि मैं ज्ञायक हूँ। जो ज्ञेय ज्ञात हो उससे भिन्न मैं ज्ञायक हूँ। जो राग होता है उससे भेदज्ञान करता है। मैं परपदार्थका कुछ कर नहीं सकता, परन्तु मैं तो ज्ञायक हूँ। ज्ञायकमें मेरी परिणति हो, ज्ञायकरूप मैं परिणति करुँ वही मेरी क्रिया है। ये बाहरका करना वह मेरी क्रिया नहीं है, वह तो परद्रव्यकी है। उससे भिन्न पडता है तो उसमें-से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, आनन्दरूप