Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1715 of 1906

 

ट्रेक-

२६१

१३५

है वह प्रगट होता है। वह मार्ग गुरुदेवने बताया है। उस भेदज्ञानके मार्ग पर चैतन्य स्वरूप अपूर्व है, जिसके साथ किसीका मेल नहीं है, ऐसा अपूर्व (आत्मा है)।

मुमुक्षुः- ज्ञायककी परिणति प्रगट करे उसे ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री होती है।

समाधानः- हाँ, ज्ञायककी परिणति प्रगट करे तो ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री है। ज्ञायककी परिणति प्रगट नहीं हुई है तो वह मैत्री नहीं है। विकल्प-से नक्की करे कि यह ज्ञान, यह क्रिया। अन्दर परिणति नहीं है तो ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री नहीं है। कोई क्रियामें रुक जाता है, कोई ज्ञानमें रुक जाता है। और कोई मुमुक्षु आत्मार्थी हो तो ऐसा माने कि मुझ-से होता नहीं, परन्तु यह ज्ञायककी परिणति ही प्रगट करने योग्य है। वस्तु स्वरूप ऐसा है कि द्रव्य वस्तु स्वभाव-से भिन्न है। उसे भिन्न करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। ऐसा विकल्प-से ज्ञान करे। आत्मार्थी हो वह ऐसा ज्ञान करे परन्तु ज्ञान-क्रियाकी मैत्री तो अन्दर ज्ञायक दशा प्रगट हो तो ही ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्री होती है।

पहले वह समझे कि करना यह है। बाकी जो नहीं समझता है वह एकान्तमें चला जाता है। मात्र बोलता रहता है, आत्मा ज्ञायक है। और कोई थोडा शुभभाव करे तो मैं बहुत करता हूँ, ऐसा मानता है। यथार्थ आत्मार्थी हो, जिसे आत्माका प्रयोजन है, वह बराबर समझता है कि यह द्रव्य वस्तु स्वभाव-से भिन्न है। परन्तु यह राग उसका स्वभाव नहीं है। लेकिन उस ज्ञायकरूप मैं कैसे परिणमूँ, ऐसी उसकी भावना रहती है। और वह ऐसा निर्णय करता है कि करनेका यही है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!