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मुमुक्षुः- कोई क्रियाजड थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई, वह तो छोड दे। ज्ञान और वैराग्यकी मैत्री, ज्ञान और वैराग्य जो साधकको साथमें होते हैं तो वैराग्यमें और क्रियानयमें एक सरीखा भाव है या थोडा सूक्ष्म अंतर होगा?
समाधानः- वैराग्य और क्रिया न? क्रियामें वह मात्र क्रियामें रुकता है। और जो वैराग्य है, वैरागी है वह अकेला वैराग्यमें रुकता है। क्रिया और वैराग्यमें, बहुभाग वह मात्र बाह्य क्रियामें रुकता है। दूसरा है वह वैराग्य-वैराग्य करता रहता है। उतना फर्क है।
मुमुक्षुः- ज्ञान और क्रियानयकी मैत्री जहाँ है, वह तो साधककी भूमिका है। तो क्रियानयको लें तो और वैराग्यकी बात ले, दोनों एक सरीखी बात है या दोनोंके बीच थोडा फर्क होगा?
समाधानः- ज्ञाननय और क्रियानयकी मैत्रीमें क्रियानयमें वैराग्य साथमें आ जाता है। उसमें वैराग्य साथमें हो तो ही उसकी क्रियाकी परिणति होती है। मैं ज्ञायक हूँ और उसमें निवर्तनेकी जो क्रिया होती है, स्वरूपकी लीनताकी जो क्रिया होती है, वह वैराग्यके बिना नहीं होती। इसलिये उसमें क्रियानयमें वैराग्य साथमें आ जाता है। उसमें विरक्ति साथमें आ जाती है।
मुमुक्षुः- संवेग निर्वेग जैसा है? क्रियानयमें अस्ति भाव-से वीतरागता प्रगट करनी और वैराग्यमें राग-से पीछे मुडना, ऐसा भाव होगा?
समाधानः- हाँ, वैराग्य अर्थात विरक्ति-नास्ति करके स्वरूपमें परिणतिकी अस्ति करता है। अस्ति-नास्ति। परन्तु वास्तविक अस्ति तो चैतन्यको ग्रहण किया वह अस्तित्व है। द्रव्यको ग्रहण किया वह। परन्तु यह परिणति प्रगट की, उस परिणतिकी अपेक्षा- से वह अस्ति है और विरक्ति हुयी वह नास्ति है। क्रियावाला जो बाह्य क्रियामें है वह भी वैराग्यकी क्रियामें उस तरह रुकता है। उसमें गर्भित वैराग्य है वह वैराग्य समझ बिनाका है। आत्माको समझता नहीं, अस्तित्व ग्रहण नहीं किया है।
मुमुक्षुः- रुंधा हुआ कषाय।
समाधानः- हाँ। वह ऐसा है।