१३८ उसे भक्ति आये बिना नहीं रहती।
पुरुषार्थ स्वयं करता है, परन्तु उपकार गुरु, देव-गुरु-शास्त्रका आये बिना नहीं रहता। अनादिकाल-से अनजाना मार्ग, वह गुरुदेवने बताया है। जो पर्यायमें... द्रव्य अनादिअनन्त शुद्ध होने पर भी पर्यायमें जो परिणति पलटनेमें उसे जो पुरुषार्थ होता है, उसमें देव- गुरु-शास्त्रका निमित्त होता है। और अनादिका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी ऐसा है कि अनादि-से जो स्वयं समझा नहीं है, उसमें पहली बार समझता है उसमें देशनालब्धि होती है। उसमें देव या गुरुका प्रत्यक्ष निमित्त होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। होता अपने-से ही है, परन्तु निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हो ही नहीं तो ऐसा सम्बन्ध है कि अनादिमें सर्वप्रथम देशनालब्धि होती है। और प्रत्यक्ष देव-गुुरु हो उस प्रकार- से देशनालब्धि होती है। इसलिये प्रत्यक्षका उपकार कहनेमें आता है। जो, प्रत्यक्ष सदगुरु सम, आता है। प्रत्यक्षका उपकार है। क्योंकि अनादि-से चैतन्यद्रव्य शुद्ध होने पर भी जब उसकी पर्याय पलटनेका पुरुषार्थ होता है तब देव और गुरुका निमित्त होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र होने पर भी ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध होता है। पर्यायका निमित्त-नैमित्तिकका कैसा सम्बन्ध है उसे ज्ञानमें रखकर प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, ऐसी उसकी द्रव्य पर दृष्टि और उस जातका उसका ज्ञान काम करता है। दृष्टि और ज्ञान दोनों मैत्रीरूप-से काम करते हैं। जैसे ज्ञाननय क्रियानयकी मैत्री है, वैसे दृष्टि और ज्ञान मैत्री-से काम करते हैं।
मुमुक्षुः- जैनदर्शनकी ऐसी अटपटी बात दूसरोंको समझमें नहीं आती। कभी ऐसा कहना, कभी वैसा कहना।
समाधानः- उन दोनोंको सम्बन्ध है। दृष्टि और ज्ञानकी मैत्री है। द्रव्यदृष्टि अखण्डको ग्रहण करती है, ज्ञानमें दोनों आते हैं। इसप्रकार मैत्री है। वस्तुका स्वरूप द्रव्य-गुण- पर्याय है। इसलिये सबमें दो-दो आते हैं। वस्तु स्वभाव-से अभेद है और उसमें गुणके भेद, पर्याय भेद (भी है)। भेद-अभेद दोनों अपेक्षा एक द्रव्यमें होती है। इसलिये हर जगह दोनोंकी मैत्री होती ही है।
मुमुक्षुः- दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रखना।
समाधानः- दृष्टि और ज्ञान साथमें होते हैं। ज्ञान और क्रियानय जैसे साथमें होते हैं, वैसे दृष्टि और ज्ञान साथमें होते हैं। वस्तु अनादिअनन्त है तो उसमें अनन्त गुण नहीं है, ऐसा नहीं है। वस्तु स्वभाव-से उसे अभेद कहते हैं, तो भी लक्षण भेद- से उसमें कोई भेद नहीं है अथवा उसमें पर्याय नहीं है, या सर्व अपेक्षा-से कूटस्थ है ऐसा नहीं है। उसमें कोई गुण नहीं है और एक अखण्ड द्रव्य है, परन्तु उसमें