१७२ उसे आगे जाकर चारित्र नहीं आता, लीनता कम होती है, इसलिये बाहर शुभभावमें खडा रहे। उसकी महिमा भी बाहरसे दिखे, भक्ति भी आये। जिनेन्द्र देवकी भक्ति करता हो, गुरुकी महिमा करता हो, सब करे, परन्तु अन्दरमें परिणतिमें, मेरा आत्मा सर्वस्व है, ऐसी श्रद्धा तो उसे होनी ही चाहिये। जिज्ञासुकी भूमिकामें भी श्रद्धा तो आत्माकी ओर होनी चाहिये। सम्यग्दर्शनमें तो यथार्थ श्रद्धा होती है। पूरी-पूरी श्रद्धा होनी चाहिये। श्रद्धान और स्वरूप महिमामें कुछ फर्क नहीं होना चाहिये।
मुमुक्षुः- विकल्पमें श्रद्धा और निर्विकल्प श्रद्धा, उसमें क्या फर्क है?
समाधानः- विकल्परूप श्रद्धामें राग मिश्रित है। राग साथमें है। निर्विकल्प श्रद्धा आत्माका यथार्थ आश्रय है। विकल्प वाली श्रद्धा है वह राग मिश्रित है।
मुमुक्षुः- विकल्प किया उसमें ही राग आ गया न?
समाधानः- विकल्पमेंं राग ही होता है। वह शुभराग है। मेरा आत्मा .. है, अपनी ओर मुडा, राग है। विकल्प है वह राग है। और जिस विकल्पमें द्वेषके विचार आये वह द्वेषका विकल्प। रागके विकल्प हैं, वह सब विकल्प, राग-द्वेषसे भरे जितने विकल्प है, उसमें मन्द हो या तीव्र, लेकिन वह राग और द्वेष (है)। विकल्प यानी उसमें राग साथमें होता है। राग और द्वेष।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान होता है वह भी विकल्पमें (ही होता है)?
समाधानः- यथार्थ भेदज्ञान, भेदज्ञानकी सहज परिणति अन्दर होती है। वह सहज परिणति (है)। विकल्प उसमें नीचे होता है। निर्विकल्प स्वानुभूतिकी बात अलग है, लेकिन भेदज्ञानकी धारामें विकल्पकी परिणति, उसे जो एकत्वबुद्धि रूप थी वह नहीं है। भेदज्ञानरूप परिणति है, इसलिये वह गौणरूप है। उसे विकल्पकी ओर आश्रयरूप नहीं है, आश्रय आत्माका है। विकल्प साथमें रहता है। भेदज्ञानकी सहज परिणति है। स्वानुभूतिपूर्वक जो भेदज्ञानकी दशा है, उसमें विकल्पका भेदज्ञान वर्तता है। विकल्प साथमें होता है, लेकिन सहज भेदज्ञान है। सहज परिणति है, विकल्प गौणरूप रहता है। भेदज्ञानकी धारा ऊर्ध्व रहती है। विकल्प गौण रहता है। सभी कायामें आत्मा ही उर्ध्व होता है, दृष्टिमें आत्मा ही नजराता है, विकल्प गौण रहता है। एकत्वबुद्धि जहाँ है, उसकी दृष्टिमें आत्मा ऊर्ध्व नहीं होता, विकल्प-विकल्प होते हैं।
मुमुक्षुः- आपने एक बात कही, केवल आत्माको पहचानकर आत्माका जानपना होना वह पर्याप्त नहीं है। उसके साथ भक्ति और महिमा आये तब ही आत्माकी अनुभूति होती है।
समाधानः- केवल जानपना यानी ऐसा अर्थ है कि रुखा जानपना। ज्ञान करे लेकिन उस जातिका वैराग्य, भक्ति, उतनी महिमा आत्माकी ओर नहीं हो तो मात्र