मुमुक्षुः- महिमा आनी चाहिये, तो कितनी महिमा आनी चाहिये?
समाधानः- उसे अंतरमेंसे पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। विभावसे, यह विभाव सर्वस्वरूपसे आदरणीय नहीं है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावकी महिमा सर्व प्रकारसे छूटकर आत्माकी महिमा उसे सर्व प्रकारसे आनी चाहिये। फिर उसे बाहरका कितना छूटे वह अलग बात है, लेकिन महिमा तो उसे पूरी होनी चाहिये। कोई भी अंशमें ये कुछ भी बाहरका आदरणीय है या यह ठीक है, ऐसा उसे नहीं लगना चाहिये। अंतरमेंसे सर्व प्रकारसे आत्मा ही सर्वस्व है। किसी भी प्रकारसे किसी भी विभावका कोई अंश भी अच्छा नहीं है और आत्माको सुखरूप नहीं है। कोई भी अंश, ऊच्चसे ऊच्च शुभभाव हो तो भी वह आत्माका स्वरूप नहीं है।
उच्चसे उच्च शुभभावकी महिमा (हो) कि यह मुझे ठीक है, ऐसा अंतरसे, अन्दरसे ऐसी महिमा नहीं होती। सर्व प्रकारसे आत्माकी ही महिमा आनी चाहिये। तो अपनी ओर दृष्टि मुडे और उसे ज्ञायककी परिणति प्रगट हो। फिर स्वयं आत्मामें उतना नहीं रह सके, वह अलग बात है। उस कारणसे अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभाव आते हैं। उसे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये। जिसे आत्माकी महिमा लगी, इसलिये जिसने आत्मा प्रगट किया ऐसे जिनेन्द्र देव, गुरु साधना करते हैं, इसलिये उसकी महिमा उसे आये। मुझे आत्मा चाहिये, वह जिसने प्रगट किया उनकी महिमा उसे आये। परन्तु वह शुभभाव है। मुझे आदरणीय तो सर्वस्व प्रकारसे आत्मा ही है। उतनी महिमा उसे आत्माकी आनी चाहिये। फिर उसे हो नहीं सके, उसमें टिक नहीं पाये वह अलग बात है। परन्तु महिमा तो पूरी-पूरी, श्रद्धामें तो उसे पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। श्रद्धा तो पूरी-पूरी आत्माकी ओर आनी चाहिये।
उसे कोई भी प्रकारसे आदरणीय या अनुमोदनीय अथवा यह करने जैसा है, बाहरका इतने अंशमें ठीक है, कोई विभावमें जुडे तो उसकी अनुमोदना (करनी), ऐसे अंतरमें उसे श्रद्धाकी अपेक्षासे नहीं आना चाहिये। श्रद्धामें पूरी-पूरी महिमा आनी चाहिये। फिर आचरणमें वह छूट नहीं सके वह अलग बात है। शुभभावमें खडा रहे। अंतरकी स्वानुभूति प्रगट नहीं कर सके और अन्दर लीनता (नहीं हो सके), सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो भी