१४० है। अपने पुरुषार्थकी क्षतिके कारण कर नहीं सकता है। रुचि उसकी, लगन उसकी, महिमा उसकी सब उसका हो, बारंबार उसका अभ्यास करे तो हो सके ऐसा है।
मितज्ञान और श्रुतज्ञान-से निर्णय किया कि मैं आत्मा यही हूँ और अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। मैं आत्मा चैतन्य, जितना ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। चैतन्यका लक्षण ज्ञायक है। वह ज्ञायक लक्षण ऐसा कोई असाधारण लक्षण है कि जो लक्षण दूसरे द्रव्यमें नहीं है। ऐसा उसका असाधारण लक्षण ज्ञायक लक्षण है। उस लक्षण-से उसे पहचानना कि जो ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ। दूसरा जो विभाव लक्षण है वह लक्षण चैतन्यका नहीं है। वह तो विभावका, पर निमित्तका लक्षण है। कोई जड पदार्थ या कोई अरूपी पदार्थ, आत्मा अरूपी होने पर भी उसका ज्ञानलक्षण कोई असाधारण लक्षण है। वह असाधारण लक्षण-से पहचाना जाय ऐसा है। उस लक्षण- से उसे पीछानना।
ज्ञायकके अन्दर अनन्त गुण भरे हैं और अनन्त महिमावंत ज्ञायक अनुपम तत्त्व है और उसमें अपूर्व आनन्द भरा है। उसे पहचानना और नक्की करना कि ये जो ज्ञायक है वही मैं हूँ। अन्य कोई वस्तु मैं नहीं हूँ। ये परपदार्थ जो बाह्यमें दिखे वह भी मैं नहीं हूँ, अन्दर जो विभाव दिखते हैं वह भी मैं नहीं हूँ, अनेक प्रकारके विकल्प हो वह भी अपना स्वरूप नहीं है। स्वयं अखण्ड चैतन्य ज्ञायक स्वभाव है वही मैं हूँ। उसमें जो अधूरी पर्याय या पूर्ण पर्याय हो, वह पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है। पर्याय, शुद्धात्माकी पर्याय उसमें शुद्ध पर्याय हो, तो भी उसका अखण्ड लक्षण तो एक ज्ञायक लक्षण है। उसका वह पूर्ण लक्षण है, उस लक्षण-से उसे पीछानना।
साधनाकी पर्यायें प्रगट हो, उसमें जो पूर्ण पर्याय प्रगट हो, वह सब उसकी साधनामें पर्यायें प्रगट होती हैं। परन्तु उसे ज्ञायक लक्षण-से पहचानना। उसे पीछानकर उसकी दृढ प्रतीत करनी, उसका ज्ञान करना, उसमें लीनता करनी। तो उसमें-से उसे स्वानुभूति प्रगट हो, आनन्द प्रगट हो, सब उसमें प्रगट होता है। और उसमें आगे बढते-बढते रत्नत्रय दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी प्राप्ति होने-से उसमें ही साधना अभ्यास, उसकी साधना करने-से केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है।
परन्तु प्रारंभमें उसे नक्की करना कि जो ज्ञायक लक्षण, ज्ञायक है वही मैं हूँ। अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। बारंबार उसीका अभ्यास करने जैसा है कि जो ज्ञायक है वह मैं हूँ। ऐसा विकल्प-से नक्की किया, पहले वह विकल्प-से होता है, परन्तु उसे अंतरमें- से मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा सहजरूप-से मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी अंतरमें-से प्रतीत हुयी और उसका भेदज्ञान बारंबार उसका अभ्यास करता रहे, फिर उसमें सहजता होने पर निर्विकल्प दशा मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। मुक्तिका मार्ग ही वह है।