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परपदार्थको स्वयं कर नहीं सकता। और दूसरा कोई अपना कर नहीं सकता, स्वयं दूसरेको कर नहीं सकता। उसे परपदार्थ-से अत्यंत अभाव है। उसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके कारण ऐसा लगता है कि मैं दूसरेका करता हूँ। वह मात्र उसे रागके कारण लगता है। बाकी चैतन्यद्रव्य अन्य-से अत्यंत भिन्न है। ऐसी प्रतीति, अन्यका कुछ कर नहीं सकता। अपने स्वभावका कर्ता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अनन्त गुणकी पर्यायें प्रगट हों उसका कर्ता है। परपदार्थका वह कर्ता नहीं है।
चारों ओर-से चैतन्यलक्षणको नक्की करके उसमें ही उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान और उसमें लीनता करके आगे बढे तो वही मुक्तिका मार्ग है। उसमें ही उसकी आनन्दकी पर्यायें प्रगट होती हैं, ज्ञानकी पर्यायें प्रगट होती हैं, चारित्रकी, अनन्त शक्तियों-से भरा गुणका भण्डार ऐसा आत्मा, उसमें-से प्रगट होता है।
गुरुदेवने वह बताया, बारंबार बताया वह गुरुदेवका परम उपकार है। और वह उपकार ऐसा है कि जीवको भवका अभाव हो जाय। अंतरमें गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी, सबको रुचि करवायी। परन्तु उस रुचिकी बारंबार उग्रता करके बारंबार उसीका प्रयत्न करने जैसा है। जीवनमें वही एक करने जैसा है कि ज्ञायक मैं कौन हूँ? ज्ञायकको पहचानना, वही करना है। उसके लिये शुभभाव आये। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति वह सब उसे शुभभावमें होता है। शुद्धात्मामें एक ज्ञायक। बस, एक ज्ञायक उसके जीवनमें वह होना चाहिये। उसीका अभ्यास और उसीका रटन, उसकी महिमा।