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मुमुक्षुः- देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा बहुत आती है, गुरुदेवकी भी बहुत महिमा आती है, आपकी भी बहुत महिमा आती है। परन्तु उसमें अमुक अपेक्षित आनन्द आता है। परन्तु आप जो कहते हो, अन्दरमें अतीन्द्रिय आनन्द, ऐसा आनन्द तो अब तक ज्ञात नहीं होता है, उसमें क्या मेरी क्षति होगी? मनमें तो इतना होता है कि उछल पडते हैं। आपके चरणोंमें आजीवन समर्पण कर दे, इतना अन्दरमें भाव आता है। अपना चले तो आजीवन ज्ञानीके पीछे सोनगढमें रहें। फिर भी अन्दर आनन्द नहीं आ रहा है। अंतरमें जो अतीन्द्रिय कहते हैं, सम्यग्दर्शन होनेके समय जो आनन्द आता है, ऐसा आनन्द आता नहीं। उसमें कहाँ (अटकना होता है)?
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। पुरुषार्थकी मन्दता है। अंतरमें जो अतीन्द्रिय अनुपम आना चाहिये, विकल्प छूटकर निर्विकल्प हो तब वह आनन्द आता है। वह आनन्द उसे कोई विकल्प सहित वह आनन्द नहीं आता है। जो महिमाका आनन्द आता है, वह शुभभावका आनन्द है। आत्मा कोई भिन्न है, ऐसा गुरुदेवने बताया। जिनेन्द्र देव कोई अलग है, गुरु कोई अलग है, ऐसे जो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये वह सब शुभभावका आनन्द है। परन्तु विकल्प छूटकर जो आनन्द आये वह कोई अनुप आनन्द है।
वह आनन्द कोई विकल्पवाली पर्यायमें वह आनन्द नहीं होता। विकल्प छूटकर चैतन्यमें-से जो आनन्द आये, जो चैतन्यका स्वभाव है, उस स्वभावमें परिणमित होकर जो आनन्द आवे वह आनन्द कोई अनुपम होता है। और प्रगट नहीं होनाका कारण अपनी मन्दता-पुरुषार्थकी मन्दता है। महिमा आये, लेकिन वह स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता है। प्रमादके कारण उसे आनन्द नहीं आ रहा है।
उसकी परिणति जो पर तरफ जा रही है, उसे स्वयं वापस नहीं मोडता है। जो अनादिका अभ्यास है उसीमें परिणति दोड जाती है। उसे अन्दर महिमा आवे कि यही सत्य है, यही करने जैसा है ऐसे महिमा आये तो भी उसकी परिणतिको पलटना वह अपने हाथकी बात है। स्वयं परिणति पलटता नहीं है। इसलिये पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह आगे नहीं बढ पाता है। पुरुषार्थकी मन्दताके कारण। अटका है वह अपनी