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मुमुक्षुः- रुचिपूर्वकके ऐसे संस्कार पडे कि जो नियम-से मुक्तिका कारण हो।
समाधानः- नियम-से मुक्तिका कारण हो।
मुमुक्षुः- .. प्रगट हो।
समाधानः- पुरुषार्थ प्रगट हो। पुरुषार्थ करे तब उसे ऐसा ही होता है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। भावना ऐसी होती है। परन्तु रुचिपूर्वकके जो संस्कार डले वह यथार्थ भावि निर्वाण भाजन होता है। निर्वाणका भाजन होता है। ... संस्कार वही काम करते हैं, विपरीत रुचि है इसलिये मिथ्यात्व-विपरीत दृष्टिके संस्कार चले आते हैं। यथार्थ अन्दर रुचि हो कि ये कुछ अलग है। आत्मा कोई अलग है, मार्ग कोई अलग है। ऐसी रुचि अंतरमें-से हो, प्रीति-से वाणी सुने तो अंतरमें ऐसी अपूर्वता लगे कि ये आत्मा कोई अपूर्व है। वाणीमें ऐसा कहते हैं, गुरुदेव ऐसा कहते हैं तो अंतरमें आत्मा कोई अपूर्व है। ऐसी आत्माकी अपूर्वता तरफकी रुचि जगे और उसके संस्कार अंतरमें डले, वह भावि निर्वाण भाजन होता है।
मुमुक्षुः- वर्तमानमें अभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ हो, तो भी उसके लिये..
समाधानः- हाँ, संस्कार काम करते हैं।
मुमुक्षुः- ख्याल आ सकता है कि यह जीव भावि निर्वाणका भाजन होगा। उसकी रुचि पर-से अथवा उसकी चटपटी पर-से, लगनी पर-से (ख्याल आता होगा)?
समाधानः- उसके अनुमान-से उसकी कोई अपूर्वता पर-से ख्याल आ सकता है।
मुमुक्षुः- "स्वभाव शब्द सुनते ही शरीरको चीरता हुआ हृदयमें उतर जाय, रोम- रोम उल्लसित हो जाय-इतना हृदयमें हो, और स्वभावको प्राप्त किये बिना चैन न पडे,.. यथार्थ भूमिकामें ऐसा होता है।' ऐसा कहकर आपको क्या कहना है?
समाधानः- अंतरमें गहराईमें चीरकर उतर जाय। अन्दर आत्माकी परिणतिमें इतना अंतरमें दृढ हो जाय कि यह कुछ अलग ही है। ऐसी गहराईमें उसे रुचि लगती है कि यही सत्य है। ये सब विभाव निःसार है, सारभूत वस्तु कोई अपूर्व है। ऐसा अंतरमें उसे लगे।
यथार्थ अर्थात जिसे अंतरमें आत्माका ही करना है, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। एक आत्माका जिसे प्रयोजन है, उस प्रयोजन-से ही उसके सब कार्य, आत्माके प्रयोजन अर्थ ही हैं। ऐसी आत्मार्थीकी भूमिका-प्रथम भूमिका है।
मुमुक्षुः- आत्मार्थीकी भूमिकामें ऐसा होता है।
समाधानः- हाँ, ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- ... इसलिये उसे उल्लास आता होगा। चीरकर हृदयमें उतर जाय अर्थात उसे उस जातका उत्साह (आता होगा)?