Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1732 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-६)

१५२

समाधानः- अन्दर हृदयमें उसे ऐसा हो जाय कि मैं भिन्न हूँ और यह सब भिन्न है। यही करना है, सत्य यही है, ऐसा अंतरमें अपनी ओर उसे उतनी महिमा, उतना उल्लास, अपनी ओर अंतरमें झुकाव हो जाय। रुचि, उस जातका झुकाव हो जाता है।

.. अलग ही बात है। मुक्तिका मार्ग कोई अलग ही है। यह स्वानुभूति .. भिन्न ही है। ऐसी अपूर्वता लगे। तत्त्व विचार करे, उस ओर रुचि जाय। राग-से, गुणभेद और पर्यायभेद-से मैं भिन्न किस अपेक्षा-से हूँ, वह सब जो जिज्ञासु है उसे निर्णय होता है। यथार्थ तत्त्व दृष्टिमें वह सब आ जाता है। द्रव्य पर दृष्टि करे उसमें सब आ जाता है।

उसे राग-से भिन्न पडना बाकी रहता है। मैं ज्ञायक हूँ। परन्तु ज्ञानका गुणभेद, पर्यायभेद आदि किस अपेक्षा-से है और कैसे है, उसकी वस्तु स्थिति कैसे है, वह सब उसके ज्ञानमें आ जाता है। यथार्थ ज्ञान करे उसे। मैं तो अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। द्रव्य हूँ तो उसमें अशुद्धता (हो रही है)। मैं शुद्धात्मा हूँ तो ये अशुद्धता किस कारण-से (होती है)? क्या है? अंतरमें साधक पर्याय प्रगट हो, ये बाधक दशा, साधक दशा, अधूरी पर्याय, पूर्ण पर्याय, गुणका भेद, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सब भेद क्या? उन सबका यथार्थ ज्ञान उसे होता है। दृष्टि एक अखण्ड द्रव्य मैं शाश्वत हूँ। उसमें पूर्ण-अपूर्णकी कोई अपेक्षा नहीं है। तो भी पूर्ण-अपूर्ण जो परिणति होती है, वह किस कारण-से (होती ही)? वह सब ज्ञान यथार्थ हो जाता है। उसे निश्चय- व्यवहारकी सब सन्धि उसके ज्ञानमें आ जाती है।

भले राग-से भिन्न पडना है, कार्यमें उसे वह करना है कि मैं ज्ञायक हूँ, कोई भी विभाव (मैं नहीं हूँ)। क्योंकि विरूद्ध स्वभावी है। रागसे भिन्न पडनेका प्रयोग करना रहता है। मैं ज्ञायक भिन्न हूँ। परन्तु उसके ज्ञानमें यह सब साधकता (आदि रहता है)। कृतकृत्य हूँ, ऐसी दृष्टि है और कार्य करनेका रहता है। दृष्टि-से मैं शाश्वत द्रव्य हूँ और शुद्ध हूँ, पूर्ण शुद्ध हूँ। फिर भी अशुद्धता हो रही है, उसमें अपूर्ण-पूर्ण पर्यायका भेद (पडता है)। इसलिये उसे ज्ञान सब होता है, परन्तु कार्य विभाव-से भिन्न पडनेका रहता है। प्रयोगमें वह है। मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक दशाकी उग्रता होती है। कृतकृत्य होनेके बावजूद करनेका रहता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानमें सब रहता है।

समाधानः- ज्ञानमें सब अपेक्षाएँ रहती है। अभेद होने पर भी भेदकी अपेक्षा रहती है। उसी प्रकार कृतकृत्य होने पर भी कार्य करना बाकी रहता है।

मुमुक्षुः- पर्यायमें अधूरापन है तो..