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समाधानः- हाँ, ऐसा है। पर्यायमें अधूरा, द्रव्य-से पूर्ण हूँ।
मुमुक्षुः- .. ऐसा दृष्टिमें लिया है, उसी वक्त पर्यायमें कार्य करना बाकी रहता है।
समाधानः- उस समय ख्याल है, कार्य करनेका है। कहीं भूल रहे ऐसा है ही नहीं। स्वयं आगे बढ नहीं सकता है, इसलिये सब प्रश्न उत्पन्न होते हैं। बाकी गुरुदेवने इतना कहा है कि कहीं भूल न रहे, इतनी स्पष्टता की है। सब स्पष्टीकरण किया है। जिसे कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ हो, उसीका स्पष्टीकरण उनकी वाणीमें आता था। किसीको ऐसा लगे कि यह कहाँ-से आया? जिसे जो प्रश्न होते थे, उन सबका उत्तर आ जाता था।
मुमुक्षुः- तीर्थंकर जैसा योग था।
समाधानः- हाँ, ऐसा योग था। उनकी वाणीका योग ही ऐसा था।
समाधानः- .. अंतरमें स्वभावमें सब भरा है। अंतर दृष्टि कर तो अंतरमें-से सब निकले ऐसा है। उसके लिये सब विचार, वांचन आदि (है)। आत्मा एक अनादिअनन्त वस्तु है। एक तत्त्व है। अगाध समुद्र, अगाध गुणों-से भरा है। सब विभावभाव है वह आत्माका स्वभाव नहीं है। वह तो पुरुषार्थकी मन्दता-से, कर्मके निमित्त-से अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। स्वयं पुरुषार्थ पलटकर आत्मा तरफकी रुचि करके उसीका बार-बार मनन, चिंतवन, सब आत्माका कैसे हो, वही करने जैसा है। उसीकी रुचि बढाने जैसा है।
अनादि कालमें सब किया, लेकिन एक आत्मा अपूर्व है (ऐसा जाना नहीं)। गुरुदेवकी वाणी अपूर्व थी। कितने साल वाणी बरसायी है। यहाँ ४५-४५ साल निवास किया है। सुबह और दोपहरको वाणी ही बरसाते थे। उनका तो परम उपकार है। इतनी तो टेप हुई हैं। उन्हें तो वाणीका योग कोई प्रबल और उनका प्रभावना योग, और उनकी वाणी कुछ अलग जातकी थी। वे तो महापुरुष थे। यहाँ तो जो उनसे प्राप्त हुआ है, वह सब कहनेमें आता है। उन्होंने तो बरसों वाणी बरसायी है।
मुमुक्षुः- इतना कहा है तो हम जैसे जीवोंको इतना उपकारी है कि जिसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।
समाधानः- गुरुदेव मानों साक्षात बोलते हो, ऐसा टेपमें लगता है। .. तो हूबहू सिंहकी दहाड लगती थी। उनका जो प्रवचन था, वह अलग था। उनकी करुणा उतनी थी। कोई आदमी आये तो करुणा-से ही बुलाते थे। शरीरका कोई घ्यान नहीं था।
... तो अंतरमें दृढ हो। आत्मा सर्वसे भिन्न ज्ञायक है, उसीका अभ्यास और उसीका वांचन, उसका विचार, बार-बार विचार और वांचनमें दृढ करने जैसा है। एक ज्ञायक आत्माको पहचाननेके लिये।