Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

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और शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र क्या कहते हैं? उनका आशय क्या है? और उसे आत्मामें कैसे ऊतारकर ग्रहण करना? उसीका बार-बार घोलन, मनन करने जैसा है। बाकी सब (निःसार है)। संसारमें जीवनमें करने जैसा हो तो यह है, एक ज्ञायक आत्माको कैसे पहचानना। स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने बताया है। लोग इतना जानने लगे हैं वह गुरुदेवका प्रताप है। उन्होंने ही सबको यह दिशा बतायी है कि आत्मा कैसा है और उसका स्वरूप क्या है? प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। तू तेरा कर सकता है। बारंबार- बारंबार ऐसा ही कहते थे।

समाधानः- ... अन्दर-से ग्रहण कर ले। उसे ग्रहण करके फिर उसे छोडना ही मत। ऐसे ग्रहण कर लेना। अनन्त कालमें भगवान हाथमें आनेके बाद उसे कैसे छोडे? अंतरमें उसे ग्रहण कर ले कि यह मेरा आत्मा और यह विभाव। दोनोंको भिन्न करना। ये सब काँचके टूकडे हैैं। उसमें-काँचके टूकडेमें चैतन्यका चमत्कार नहीं दिखता। चैतन्यका चमत्कार तो इस हीरेमें है। उस हीरेको पहचान लेना, चैतन्य हीरेको। वह सब तो काँचके टूकडे हैं। आता है न? "...., कस्तूरी तुझ पास है, क्या ढूँढत है।' हे मृग! तेरी खुश्बु-से यह वन सुगन्धित हुआ है और तू बाहर-से खोजता है कि यहाँ-से खुश्बु आती है, इस वृक्षमें-से, इसमें-से, उसमें-से। कहीं खुश्बु नहीं है। यहाँ दृष्टि कर तो तेरी सुगन्ध है।

चैतन्यका चमत्कार, ज्ञानकी प्रभा तूने ज्ञेयमें स्थापित कर दी है। वह ज्ञानकी प्रभा तेरी है, तू तेरेमें देख। ये चैतन्यका चमत्कार तूने जडमें स्थापित कर दिया है। तू स्वयं चैतन्य- हीरा है। उसमें सब है, उसे खोज ले। उसकी ओर दृष्टि कर, उसमें ही सब भरा है।

समाधानः- .. लगनी लगी हो तो उत्पन्न हो। अंतरमें उतनी लगनी चाहिये, स्वयंको उतनी रुचि होनी चाहिये। यही करना है। उसीकी बारंबार लगन लगती रहे कि मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायककी परिणति ही प्रगट करने जैसी है। उतनी अन्दर लगनी लगे तो पुरुषार्थ उत्पन्न हो। रुचि मन्द हो, बाहर जुडता रहे तो उसे पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं होता है। लगनी लगे तो ही उत्पन्न होता है। गुरुदेवने तो बहुत कहा है, बहुत मार्ग बताया है। करना स्वयंको है। परिणति कैसे पलटनी वह अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- हम भाईओं आपके पास ज्यादा नहीं बैठ सकते, परन्तु हमारे भाग्य- से हमें पण्डितजी भी अच्छे मिल गये हैं।

समाधानः- .. बहुत मिला है, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। गुरुदेव-से ही सबने

जाना है और गुरुदेवने ही मार्ग बताया है। सब बाह्य क्रियाओंमें और कहाँ पडे थे।
अंतर दृष्टि गुरुदेवने करवायी कि अंतरमें देख, अंतरमें ही मार्ग है। स्वानुभूतिका मार्ग
गुरुदेवने बतया। प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!