मुमुक्षुः- ज्ञानीको जो वास्तवमें पहचानता है, वह ज्ञानी हुए बिना नहीं रहता।
समाधानः- वास्तवमें उनका अंतर पहिचाने तो वह स्वयं ज्ञानी हुए बिना नहीं रहता। अंतर परिणतिको पहिचाने तो अपनी परिणति भी वैसी ही हो जाती है।
मुमुक्षुः- अंतर परिणति यही न? अभी जो अपनी बात हुयी, बाहरमें इस प्रकार राग होने पर भी अंतर ज्ञान तो ऐसा ही काम करता रहता है, दो द्रव्यकी भिन्नता है इसलिये रागका कुछ कार्य बाहरमें आवे या परद्रव्य अपनेमें कुछ करवाये ऐसा नहीं बनता।
समाधानः- परद्रव्यका कोई कार्य रागके कारण नहीं होता है। उससे भिन्न, शरीर- से भिन्न परिणमन वर्तता है और विभाव अपना स्वभाव नहीं है, उससे भी उनका परिणमन भिन्न वर्तता है। राग हो, उस रागके कारण बाहर होता नहीं है और रागके कारण शरीरका कुछ नहीं होता है। और वह राग अपना स्वभाव नहीं है, इसलिये राग-से भी स्वयं भिन्न परिणमता है। रागका भी उन्हें स्वामीत्व नहीं है। उससे भी भिन्न परिणमता है, उसका उन्हें स्वामीत्व नहीं है।
उसकी ज्ञायककी धारा क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें भिन्न परिणमती है। उसे वह भूलता नहीं है। वह उनका अंतर परिणमन है। राग-से बाहरका तो कुछ होता नहीं, परन्तु राग-से भी स्वयं भिन्न परिणमता है। ऐसा करुँ, वैसा करुँ, ऐसा राग आये, फिर भी वह राग होता है, उस समय भी स्वयं भिन्न परिणमते हैं। रागरूप वे नहीं परिणमते।
मुुमुक्षुः- उस वक्त उसका स्वामीत्व नहीं है। समाधानः- उस वक्त उस रागका स्वामीत्व भी उसे नहीं है। ऐसी क्षण-क्षणमें ज्ञायककी भिन्न धारा, ज्ञाताधारा (वर्तती है)। कर्ताबुद्धि नहीं है और ज्ञाताधारा वर्तती है। आंशिक शान्ति धारा, ज्ञाता धारा क्षण-क्षणमें वर्तती ही रहती है।
मुमुक्षुः- ये तो ज्ञानीका अलौकिक अंतर परिणमन है, कि जो अज्ञानी जीवोंको ख्यालमें नहीं आता है और कर्ताबुद्धिका सेवन करता है।
समाधानः- बाहर-से ऐसा लगे कि मानों करते हों। मानों सब करते हो ऐसा लगे। अंतर-से उसका भिन्न ज्ञायकरूप परिणमन है। ज्ञाता है, बाकी दिखे ऐसा, बोले