२६५
से देख। अंतर दृष्टि-से देखना तो किस प्रकार-से देखनेका प्रयत्न करना?
समाधानः- अमुक जातकी युक्ति, दलील-से नक्की कर सके। बाकी तो कर नहीं सकता। बाकी उनके परिचय-से, उनकी बात-से ऐसे नक्की करे। युक्ति, दलील, न्याय- से, सिद्धान्त-से नक्की करे। बाकी उसे उस जातका ख्याल नहीं है इसलिये उसे नक्की करना मुश्किल पडता है।
परन्तु विचार करे तो उसे ख्याल आये कि भेदज्ञानकी परिणति हो सकती है। भेदज्ञानमें प्रतिक्षण अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो भेदज्ञानकी परिणति प्रगट हो सके ऐसा है। यदि न हो तो वह भिन्न ही नहीं पड सकता। वह भिन्न पडता है, स्वानुभूति होती है। जो सिद्ध होते हैं, वे भेदविज्ञान-से ही होते हैं। अतः भेदविज्ञान अंतरमें हो सकता है। उसकी भावना ऐसी होती है कि दूसरेको शंका पडे कि ये सब भावना ऐसी दिखे कि मानों कर्ताबुद्धि जैसी दिखती है।
मुमुक्षुः- इसीलिये आज विचार आया कि आपको ही पूछ लूँ।
समाधानः- हाँ, दिखे वैसा। पूजामें ऐसा दिखे, देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगमें ऐसा दिखे तो भी प्रतिक्षण वह क्षण-क्षणमें न्यारा ही होता है। जैसे मक्खन भिन्न पड जाता है, फिर-से वह पहलेकी भाँति एकमेक नहीं हो जाता। छाछके साथ रहे तो भी वह मक्खन भिन्न ही तैरता है।
मुमुक्षुः- एक बार भिन्न पडनेके बाद एकमेक नहीं होता।
समाधानः- एकमेक नहीं होता। .. ज्ञान जो है, उस ज्ञानको-ज्ञायकको भिन्न किया। अनादि-से ज्ञान तरफ देखता नहीं है और विभाव तरफ देखता रहता है। ज्ञान- ज्ञायक तरफ दृष्टि और परिणति है। इसलिये वह उसी तरफ देखता है। विभाव तरफ उसका अल्प हो गया है। उसकी परिणति ज्ञायक तरफ, पूरा चक्र ज्ञायक तरफ हो गया है। अल्प विभाव तरफ थोडा रहा है।
मुमुक्षुः- अज्ञानीको स्थूल ज्ञान है इसलिये उसे राग ही दिखता है, ज्ञान दिखाई नहीं देता।
समाधानः- राग दिखता है, ज्ञान नहीं दिखाई देता।
मुमुक्षुः- हमें दुःख हो ऐसी बात है। परन्तु गुरुदेवका इतना सुना है कि उसीसे समाधान करते हैं। फिर भी आपके शब्द सुनने हैं।
समाधानः- अचानक हो जाय और छोटी उम्र हो इसलिये ऐसा लगे। गुरुदेवने कहा है, शान्ति रखने अलावा उपाय नहीं है। संसारका स्वरूप (ऐसा ही है)। जहाँ कोई उपाय नहीं है, वहाँ शान्ति रखनी ही श्रेयरूप है।
अनन्त जन्म-मरण, जन्म-मरण करते-करते भवका अभाव हो ऐसा मार्ग गुरुदेवने