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जीवनमें भेदज्ञान कैसे हो? कि यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, ये विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न आत्माको पहिचान लेना। एक ज्ञायक आत्माको पहिचानना वही श्रेयरूप है। उसीमें आनन्द है, उसीमें सुख है। आत्मा शाश्वत है। उसे ग्रहण करने- से वह शाश्वत स्वयं ही है। आत्माका सम्बन्ध ही सच्चा सम्बन्ध है। जगतके अन्ेदर दूसरे सम्बन्धमें फेरफार होते रहते हैं।
बडे मुनिश्वर और राजेश्वरोंके आयुष्य पूर्ण होता है। चक्रवर्ती राजा भी अंतमें मुनिपद धारण करके इस मार्गको ग्रहण करते हैं। उनकी पदवीमें ऋद्धिका पार नहीं था, फिर भी छोडकर चले जाते हैं। संसारका स्वरूप ऐसा है। इसलिये एक आत्माको ग्रहण करना वही श्रेयरूप है। और गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। कोई क्रियामें पडे थे, कोई कहाँ पडे थे। उसमें-से आत्माका सुख कैसे प्राप्त हो और आत्मा कैसे प्रगट हो, वह गुरुदेवने बताया है।
शास्त्रमें आता है, मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे, कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणु मात्र नहीं अरे! ३८. कोई परमाणुमात्र अपना नहीं है। स्वयं शुद्ध स्वरूप अरूपी आत्मा है। शरीर अपना नहीं है। एक शुद्ध सदा ज्ञान-दर्शनसे भरा हुआ आत्मा है, कोई परमाणु मात्र अपना नहीं है। किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। जितना राग हो, वह स्वयंको याद आता है। राग आये तो उसे बदलकर शान्ति रखनेके अलावा कोई उपाय नहीं है। ऐसा प्रसंग बने इसलिये एकदम सदमा लगे तो भी शान्ति रखनेके अलावा कोई उपाय नहीं है।
मुमुक्षुः- इतनी सारी ऋद्धि और ऐसा मिलता हो तो भी उन्हें ऐसा कौन- सा बन्धन आ गया कि उन्हें रास्तेमें ऐसा हो गया। न धर्मका कुछ सुन सके, ना और कुछ कर सके।
समाधानः- ऐसा है कि आयुष्य कैसे पूर्ण हो वह तो पूर्वका होता है। वर्तमान जो रुचि हो वह तो इस भवमें प्रगट की। और आयुष्यका बन्ध हुआ वह तो पूर्वका है। इसलिये पूर्वका आयुष्य बन्धका उदय ऐसा ही था कि इसी तरह-से आयुष्य पूर्ण हो। अतः उसमें तो कुछ (हो नहीं सकता)। आयुष्यका बन्ध कैसा पडा हो, उसमें जीव फेरफार नहीं कर सकता। अपने भावको बदल सकता है। भावमें अन्दर राग- द्वेषकी एकत्वबुद्धि तोड सकता है। बाकी बाहरके संयोग बदल नहीं सकता। बाहरका, शरीरका, रोगका या आयुष्य कैसे पूर्ण हो, कोई जीव उसको नहीं बदल सकता। पूर्वका जो उदय हो वह उदय आते ही रहते हैं। बाहरका कोई कार्य बदल नहीं सकता, वह तो उदय अनुसार होता है।