१६६ है। ऐसा अनुकूल उदय न हो तो वैसा नहीं भी बनता। ऐसा बनता है।
मुमुक्षुः- दोनों प्रकार भजते हैं।
समाधानः- ऐसा बनता है। लेकिन उसे निर्णय बराबर होता है कि स्वतंत्र द्रव्य है। फिर उसे आकुलता नहीं होती, समाधान हो जाता है कि जैसा बनना होता है वैसे ही बनता है। उसकी रागकी मर्यादा (है), मर्यादा बाहर नहीं जाता। उसकी भावना अनुसार अमुक राग उसकी मर्यादामें (होता है)। जो मुमुक्षुकी मर्यादामें राग हो उस अनुसार उसे भावना आती है।
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। मैं ज्ञायक भिन्न, परद्रव्य भिन्न, कोई किसीको कर नहीं सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका, कोई चैतन्य चैतन्यका कर नहीं सकता। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। सबके परिणाम स्वतंत्र, सबकी परिणति स्वतंत्र, सब स्वतंत्र हैं। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके कारण बने, इसलिये इच्छा अनुसार हुआ ऐसा दिखता है। बाकी कोई किसीका कर नहीं सकता। ऐसा दिखता है इसलिये विचार-विचार चलते रहते हैं।
बाकी जिसे सहज प्रतीति होती है वह समझता है कि जो बनना है वही बनता है। स्वयंको जो राग आता है, इच्छा होती है, वह मात्र राग होकर छूट जाता है। बाकी उसकी विचारणा उसे लंबी नहीं चलती। जैसे बनना होता है वैसे ही बनता है। अपने ज्ञायकको भिन्न जानता है। ज्ञायककी प्रतीत और ज्ञायकका परिणमन भिन्न है और ये परद्रव्यका परिणमन भिन्न है। विकल्पात्मक प्रतीति है इसलिये उसे विचारणा चलती है कि इच्छा अनुसार बनता है। इच्छानुसार बनता नहीं है। वह स्वतंत्र परिणमन है।
मुमुक्षुः- कभी-कभी उलझन हो जाती है। पक्का निर्णय है इसलिये कोई बार अन्दर उलझन हो जाती है, एक प्रकारकी आकुलता हो जाती है। बाहरमें गलत हो रहा है ऐसा लगे, फलाना होता हो तो ऐसा लगे कि ऐसा क्यों? फिर शंका पडे। तत्त्व अपनेको बैठा नहीं है इसलिये ऐसा होता है।
समाधानः- उसने विकल्प-से नक्की किया है न, इसलिये ऐसे विचार आते हैं। बाकी वस्तु स्वरूप-से जो बनना होता है ऐसा ही बनता है। जिसे सहज ज्ञायककी प्रतीति (हुयी है), सहज भेदज्ञानकी धारा है, उसे ऐसे विचार नहीं आते हैं। जो है उसे जानता है। राग आये उसे भी जानता है। उसे राग आता है, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब उसे आता है, परन्तु जो भी होता है उसे जानता है, उसे लंबे विचार नहीं चलते। सहज ज्ञायककी धारा, भेदज्ञानकी धारा वर्तती रहती है।
मुमुक्षुः- अनुभव होने पूर्व आपने किस प्रकारका अभ्यास किया कि जिससे विकल्पात्मक ज्ञानमें ऐसा निर्णय एकदम मजबूत हो गया? क्योंकि हम हमारी परिणति देखते हैं तो हमें तो ऐसा ही लगता है कि ये परिणति डोलमडोल होती है। शास्त्र