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पढते हैं, शास्त्र-से नक्की करते हैं तो ऐसा लगता है, बराबर, ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है। अपनी परिणति-से देखते हैं तो ऐसे विचार चलते रहते हैं। कोई बार वैसा भाव बैठता है, कोई बार ऐसे लंबे विचार भी आते हैं।
समाधानः- विकल्पात्मक प्रतीति है न, इसलिये उसमें डोलमडोल होता है। बाकी दृढ निर्णय हो और मैं ज्ञायक ही हूँ और जो बनना है वह बनता है, ऐसी प्रतीतिकी दृढता, ऐसे अभ्यासकी दृढता हो तो उसे ऐसे विचार लंबाते नहीं। बाकी सहज धारा तो स्वानुभूतिके बाद ही होती है। इसलिये अभ्यासकी दृढता रखे तो उसे वैसे विचार लंबाये नहीं। उसकी मन्दताके कारण विचार लंबाते हैं।
समाधानः- उसकी प्रतीतिमें उसे विचार लंबाते हैं। उसकी मन्दताके कारण।
मुमुक्षुः- उस प्रकारके अभ्यासकी मन्दताके कारण।
समाधानः- अभ्यासकी मन्दताके कारण विचार लंबाते हैं। बाकी सहज धारा जिसे होती है, उसे ऐसे विचार लंबाते नहीं। स्वानुभूतिकी बादकी धारामें उसे वैसा नहीं होता। उसे ज्ञायककी धारा ही रहती है।
समाधानः- ... वैसा बनना था तो वैसा हुआ। चक्रवर्ती तो पुण्य लेकर आये हैं। बाकी कुछ राजा हार जाते हैं।
मुमुक्षुः- भरत चक्रवर्ती बाहुबलीके आगे हारे।
समाधानः- हाँ, परन्तु उनका चक्रवर्ती पद लेकर आये थे। उस वक्त हारे, उस प्रकार-से हारे। परन्तु उन्हें कुछ होता नहीं है। उनकी लडाईमें हार गये।
मुमुक्षुः- जिसे ज्ञायककी सच्ची दृष्टि प्रगट हुयी है, वह दृष्टि अपेक्षा-से तो रागको अपने-से भिन्न जानता है। उसी क्षण ज्ञान ऐसा जानता है कि यह परिणमन मेरा है। मेरा प्रश्न यहाँ है कि वह परिणमन मेरा है, उस क्षण अशुभरागमें जितना ऊलटा पुरुषार्थ हुआ है, उसमें भी ऐसा ज्ञान करता है कि ये मेरे ऊलटे पुरुषार्थपूर्वक ही ऐसा हुआ है। ऐसा भी जानता है या स्वकालमें हुआ है, उसकी मुख्यता रखता है?
समाधानः- ज्ञान दोनोंको जानता है। स्वपरप्रकारशक। ये ज्ञायक सो मैं हूँ और ज्ञान ऐसा भी जानता है कि मेरी इतनी ज्ञायककी परिणति है। दृष्टिके साथ ज्ञायककी परिणति भी वर्तती है-ज्ञानधारा। और शेष न्यूनता है उतनी रागधारा है। रागाधारा मेरे पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण इन कायामें-शुभाशुभ भावोंमें जुडना हो जाता है। बाकी इसी क्षण मैं ज्ञायक हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिये। एक ज्ञायकता मुझे प्रगट हो उतनी पुरुषाार्थ धारा बढे तो मुझे वीतराग ही होना है। ऐसी भावना है। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण उसमें जुडता है। उसमें वह जानता है कि ये शुभाशुभ परिणाम (होते