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मुमुक्षुः- मेरा प्रश्न तो यह है कि शुभराग या रागधारा-कर्मधारा जो चलती है, उसमें जो राग उत्पन्न होता है, वह राग होनेमें पुरुषार्थकी मुख्यता लेता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दताके कारण अथवा ऊलटे पुरुषार्थके कारण ये राग उत्पन्न हुआ है ऐसे लेता है? क्योंकि पाँचो समवाय हैं। शुभरागमें वह किसकी मुख्यता करता है? ऊलटे पुरुषार्थकी मुख्यता (करता है)?
समाधानः- मेरी मन्दता है। पुरुषार्थकी मन्दता है। मैं ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है, उसका स्वतंत्र परिणमन है, यह सब जानता है। परन्तु उसके साथ मुख्य उसे ऐसा है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। मुख्य ऐसा रहता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। यह मेरा स्वभाव नहीं है, परन्तु मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से (होश्रता है)। पुरुषार्थ मेरे स्वभावकी ओर जाय तो ये सब छूट जाय ऐसा है। लेकिन उसको उसकी आकुलता नहीं है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है, मैं कैसे अंतरमें जाऊँ, ऐसी भावना रहती है।
ज्ञानमें जानता है कि ये जो है वह मेरा स्व परिणमन है और यह विभाव है। चारित्रमें ऐसा जानता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। पुरुषार्थकी मन्दता उसके ख्यालमें मुख्य (रूप-से रहती है)।
मुमुक्षुः- स्वप्न तो वैशाख शुक्ल दूज थी न, उस दिन आया था। स्वाध्याय मन्दिरमें सब सजावट और चरणचिह्न, जीवन दर्शन आदि सब था न, इसलिये देखकर ऐसा हुआ कि गुरुदेव यहाँ विराजते हों तो कैसा लगता? वहीके वही विचार चलते थे। रातको ऐसा होता था, गुरुदेव पधारो, पधारो। ऐसा होता था। इसलिये प्रातःकालमें स्वप्न आया कि गुरुदेव देवलोकमें-से पधारे हैं, देवके रूपमें। रूप देवका था और पहनावट सब देवकी थी, रत्नके आभूषण, रत्नका मुगट आदि था। पहचानमें आ जाय कि गुरुदेव हैं, देवके रूपमें।
गुरुदेवने ऐसा कहा कि बहिन! ऐसा कुछ रखना नहीं, मैं तो यहीं हूँ, ऐसा तीन बार कहा कि मैं तो यही हूँ। देवलोकमें है। परन्तु मैं तो यहीं हूँ। ऐसा भाव-से गुरुदेवने कहा। मनमें ऐसा हुआ कि गुरुदेवकी आज्ञा है, स्वीकार कर ले कि गुरुदेव यहाँ है। परन्तु ये सब जीवोंको दुःख होता है। गुरुदेव मौन रहे। परन्तु गुरुदेवने ऐसा ही कहा कि मैं यहीं हूँं। ऐसा दो-तीन बार कहा।
उस ऐसा उत्सव हो गया कि सबको आनन्द ही बहुत था। स्वप्न तो उतना था, परन्तु आनन्द था। गुरुदेव देवलोकमें विराजते हैं, देवके रूपमें यहाँ पधारे। ऐसा स्वप्न आया।
मुमुक्षुः- हमें तो आपके सातिशय ज्ञानमें आपका..