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समाधानः- विराजते हैं, क्षेत्र-से दूर है। बाकी गुरुदेव जहाँ विराजे वहाँ शाश्वत ही है। अलौकिक आत्मा, तीर्थंकरका द्रव्य कुछ अलग ही है। गुरुदेवका प्रभाव हर जगह वर्तता है। गुरुदेवका श्रुतज्ञान (ऐसा था)। गुरुदेवके प्रभावना योग-से तो सब अपूर्व था। गुरुदेव यहाँ विराजे तो भी क्षेत्र-से दूर (हैं)। बाकी गुरुदेवने ऐसा कहा कि मैं तो यहीं हूँ।
समाधानः- ... शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, विभाव स्वभाव अपना नहीं है। बाह्य संयोग तो पूर्व कर्मका उदय-से होता है। बाकी स्वयं अंतरमें शान्ति रखकर, गुरुदेवने जो वाणी बरसायी, उनके उपदेशके जो संस्कार है, उसे दृढ करना कि आत्मा भिन्न शाश्वत है। वास्तवमें तो वही करनेका है। उसीका वांचन, उसका विचार, अभ्यास वह, श्रुतका विचार, उसीकी महिमा सब वही करने जैसा है। संसारके अन्दर बाकी सब गौण है। आत्माको मुख्य करके आत्माकी रुचि कैसे बढे, वह करने जैसा है।
... महाभाग्यकी बात है। ऐसे पंच कल्याणक प्रसंग उजवाते हैं। साक्षात पंच कल्याणक तो भगवानके होते हैं। अपने प्रतिष्ठा करके पंच कल्याणक मनाते हैं। स्थापना करके। जिनेन्द्र भगवानकी महिमा कोई अपूर्व है। देव महिमा, गुरु महिमा, शास्त्र महिमा। जीव अन्दर शुद्धात्माका लक्ष्य करके जो कुछ हो वह करने जैसा है। शुभभावनामें श्रावकोंको यह होता है। अन्दर शुद्धत्मा कैसे प्रगट हो और बाहरमें शुभभावनामें यह होता है। देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना कैसे हो, वह होता है। अपनी शक्ति हो उस अनुसार। उपकारका बदला चूकाना असमर्थ है। उस उपकारके आगे कुछ भी करे सब कम ही है।
मुमुक्षुः- उनकी महिमा आप बताते हो। समाधानः- ४५ साल यहाँ रहकर जो उपदेश बरसाया है, सबकी रुचि (हो गयी), अंतरमें सबको जागृत किया।