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समाधानः- .. सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका गुरुदेवने कितना स्पष्ट करके मार्ग बताया है। करनेका स्वयंको बाकी रहता है। अपनी पुरुषार्थकी क्षतिके कारण अटका है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। जो अटका है, वह स्वयंकी क्षतिके कारण। अपनी परिणतिकी क्षतिके कारण अटका है। बाकी मार्ग तो एक ही है, मार्ग कहीं दूसरा नहीं है। मार्ग तो एक ही है।
एक ज्ञायक आत्माको पहचानना, वही एक मार्ग है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। मार्ग कहीं ज्यादा नहीं है कि उसे आकुलता हो कि इस मार्ग पर जाना, इस मार्ग पर जाना या इस मार्ग पर जाना। ऐसा नहीं है। मार्ग तो एक ही है। एक चैतन्य पदार्थ है। स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त आत्मा है, उस आत्माको पहचानना। आत्मा अपनेआपको भूल गया वह एक आश्चर्यकी बात है कि स्वयं होने पर भी स्वयंको स्वयं देखता नहीं है। स्वयं स्वयंको पहिचाने, भिन्न करके।
ये शरीर अपना स्वरूप नहीं है। उसके साथ एकत्वबुद्धि, अन्दर विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि, सब शुभाशुभ भाव, सबके साथ एकत्वबुद्धि कर बैठा। उससे भिन्न अपना ज्ञायक स्वरूप ज्ञान लक्षण-से पूर्ण ज्ञायकको पहिचानना। उसे पहिचानकर उसका भेदज्ञान करके, उस परिणतिको दृढ करके स्वयं उसमें प्रतीति दृढ करके, ज्ञान करके, उसमें लीनता करे तो सम्यग्दर्शन होता है। परन्तु करना स्वयंको है। स्वयं करता नहीं है। स्वयं अपनी मन्दता-से रुका है।
मुमुक्षुः- इसमें श्रद्धाका दोष लें, ज्ञानका दोष लें या पुुरुषार्थका दोष लें या रुचिकी क्षति लें?
समाधानः- सब दोष है। श्रद्धाकी क्षति है, रुचिकी क्षति है, पुरुषार्थकी क्षति है। सब एकसाथ मिले हैं। ज्ञान यथार्थ कब कहा जाय? कि ज्ञान ज्ञानरूप परिणमे तब। तबतक वह बुद्धिपूर्वकका ज्ञान करता है कि वस्तु ऐसी है। फिर भी वह ज्ञान ज्ञायकरूप परिणमता नहीं है। इसलिये वह ज्ञान भी यथार्थ नहीं है। विचार करके ज्ञान करे कि यह वस्तु ऐसे ही है। परन्तु ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमे नहीं, तबतक ज्ञानको भी यथार्थ विशेषण लागू नहीं पडता। इसलिये सब दोष है।