१७२ ऐसा होता है।
यह तो अभी उससे भी पहलेकी भूमिकामें खडा है, भेदज्ञान प्रगट नहीं हुआ है और सहज दशा तो प्रगट नहीं हुयी है, और सहज मान ले तो आगे बढनेका अवकाश नहीं है। सहज दशा ही प्रगट नहीं हुयी है। और कर्तृत्वबुद्धिमें खडा है और सहज मान ले तो आगे बढनेका अवकाश नहीं है। इसे तो कर्ताबुद्धि छूट गयी है, स्वामीत्वबुद्धि छूट गयी है, ज्ञायक दशा प्रगट हुयी है, तो भी उसमें पुरुषार्थकी अपेक्षा उसके ध्यानमें रहती है कि मेरे चारित्रकी मन्दता-से लीनताकी मन्दता-से छठ्ठी-सातवीं भूमिकामें जा नहीं पाता हूँ। वह उसके ख्यालमें है। तो भी उसे ऐसा रहता है। सर्व अपेक्षा-से ऐसा ही माने कि सब सहज है, तो आगे बढनेका अवकाश नहीं रहता है।
मुमुक्षुः- इसमें क्रमबद्ध आ गया न?
समाधानः- सब सहज माने उसमें क्रमबद्ध आ गया। परन्तु क्रमबद्ध पुरुषार्थपूर्वक होना चाहिये। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध जुडा है। सच्चा क्रमबद्ध तब कहा जाय कि जिसकी कर्ताबुद्धि छूट गयी, सहज ज्ञायक दशा प्रगट हुयी है तो भी पुरुषार्थके साथ वह क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है। पुरुषार्थकी जैसी परिणति हो उस जातका उसका क्रमबद्ध होता है। उस जातके क्रमबद्धकी रचना उसे होती है। वह पुरुषार्थके साथ जुडा है।
उसकी पुरुषार्थकी गति अपनी तरफ जाय, ज्ञायकरूप (परिणमे) तो उसका क्रमबद्ध मोक्ष तरफ जाता है। और बाहरमें खडा है, विभावमें एकत्वबुद्धि करके (मानता है कि) जैसे होना होगा वैसा होगा, उसका क्रमबद्ध उस जातका है। अपनी तरफ जाय उसका क्रमबद्ध उस जातका है।
मुमुक्षुः- ज्ञानको किस प्रकार-से धीरा करें?
समाधानः- ज्ञानको धीरा करके तू देख, ज्ञायक क्या है? वस्तु क्या है? पर क्या है? क्या स्व है? ऐसे धीरा होकर विचार तो यथार्थ ज्ञान होगा। आकुलता, रागमिश्रित ऐसे ज्ञानमें विशेष आकुलतामें यथार्थ स्वभाव तुझे ग्रहण नहीं होगा। इसलिये धीरा होकर, रागको गौण करके धीरा होकर विचार। तो यथार्थ होगा। यथार्थ वस्तु ख्यालमें आयेगी। ज्ञानको धीरा करके, राग-से भिन्न उसे गौण करके देख तो तुझे यथार्थ ग्रहण होगा।
मुमुक्षुः- विपरीत श्रद्धा हो तो ज्ञान धीरा नहीं होता है?
समाधानः- उसमें जो विशेष आकुलता हो, उस आकुलता-से धीरा पड सकता है। यथार्थमें धीरा हो, वह अलग बात है। जिज्ञासाकी भूमिकामें भी धीरा होकर देख तो सकता है।
मुमुक्षुः- विकल्पात्मक भेदज्ञान हुआ?
समाधानः- विकल्पात्मक है।