Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

१७४

समाधानः- यथार्थ मार्ग तो दिगंबर शास्त्रोंमें ही है। वह तो यथार्थ है ही कहाँ? उसमें यथार्थ नहीं है। उसमें कितने ही जातके फेरफार है। वह यथार्थ नहीं है। .. कितने ही फेरफार है। यथार्थ मार्ग तो दिगंबरमें ही है। प्रारंभ-से लेकर पूर्णता पर्यंतका दिगंबरमें ही है। श्वेतांबरमें तो बहुत फेरफार है। सत्ता और शक्तिके अलावा भी दूसरे बहुत फेरफार है। बहुत फेरफार हैं। (गुरुदेवने) कितना अभ्यास करके, खोज-खोजकर, विचार करके परिवर्तन किया था कि यह मार्ग सत्य है।

मुमुक्षुः- श्रीमदजीने उतनी स्पष्टता नहीं की है। अन्दरमें थी, परन्तु लिखावटमें उतनी स्पष्टता (नहीं है)। गुरुदेवने जितनी की है उतनी नहीं है।

समाधानः- गुरुदेवने तो पूरा मार्ग प्रकाशित कर दिया। सूक्ष्म रूप-से भी कहीं किसीकी भूल न रहे ऐसा कर दिया है।

मुमुक्षुः- जन्म-मरण करते-करते मुश्किल-से मनुष्यभव मिला, उसमें ऐसा सुनने मिला। उसमें ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया। उसमें आत्मा भिन्न है, उसका क्या स्वभाव है, उसे पहचानना है। ये विभावस्वभाव तो दुःखरूप और आकुलतारूप है। वह कहीं अपना स्वभाव नहीं है, आकुलता है। शुभाशुभ भाव आकुलता है। अन्दर सुखरूप एक आत्मा है। उसे कैसे पीछानना, उसका प्रयत्न करना। उसके लिये उसके विचार, वांचन, सब करना। और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। एक शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, उस ध्येयपूर्वक। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा-शुभभावनामें वह। जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र। और अंतरमें शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, वह करना है। जीवनमें उसके लिये यह सब प्रयत्न, उसके लिये अभ्यास, सब उसीके लिया करना है।

बाकी सब तो अनादिकाल-से सब किया है। जीवको सब प्राप्त हो चूका है। वह कहीं अपूर्व नहीं है। देवलोकका भव और देवलोककी संपत्ति प्राप्त हुयी, और बाहरकी संपत्ति भी जीवको अनन्त बार मिली है। अपूर्व तो सम्यग्दर्शन अपूर्व है। इसलिये गुरुदेवने अपूर्व वस्तु बतायी। वह कैसे प्राप्त हो, वह करना है।

जीवको अनन्त कालमें सब प्राप्त हुआ है। एक जिनेन्द्र देव नहीं मिले हैं उसका अर्थ स्वयंने पहिचाना नहीं है। अनन्त कालमें मिले हैं, परन्तु पहिचाना नहीं है। इसलिये नहीं मिलने बराबर है। और एक सम्यग्दर्शन अपूर्व है। वह कैसे प्राप्त हो, उसकी भावना, लगन, महिमा आदि सब करने जैसा है। उसका विचार, वांचन सब करना है।

अंतरमें कोई अपूर्व वस्तु है, अनुपम वस्तु है। सुखरूप वस्तु है। उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसमें लीनता, वह सब कैसे प्राप्त हो, उसका प्रयत्न करने जैसा है। ऐसा मानते थे, इतना शुभभाव किया अथवा इतनी क्रियाएँ की तो धर्म हो जाय, ऐसा माना था। ऐसेमें गुरुदेवने अंतर दृष्टि बतायी कि अंतरमें धर्म है। बाहर-से कुछ