Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1755 of 1906

 

ट्रेक-

२६७

१७५

नहीं आता है। जब तक शुद्धात्मा प्रगट न हो, तो उसका ध्येय रखे। तबतक देव- गुरु-शास्त्र तरफखे शुभभाव आये। बाकी धर्म तो आत्माके स्वभावमें रहा है। वह मार्ग पूरा गुरुदेवने बताया है।

मुमुक्षुः- माताजी! आपके निमित्त-से जो स्पष्टीकरण हो वह भी उतना सुन्दर होता है कि लोगोंको जो कुछ अस्पष्ट हो, वह स्पष्ट हो जाता है।

समाधानः- अंतरमें शीघ्रता-से पुरुषार्थ उत्पन्न हो... उत्पन्न न हो तो उसका संस्कार डाले। एकत्वबुद्धि तोडकर मैं चैतन्य ही हूँ, ऐसे बारंबार दृढ अभ्यास करता रहे। उसका विचार, उसका वांचन, देव-गुरु-शास्त्रने जो बताया है, वह सब स्वयं बारंबार उसका मंथन कर-करके उसके संस्कार डाले तो भविष्यमें भी संस्कार गहरे तो वह प्रगट होनेका कारण बनता है। जो पुरुषार्थ करे, उग्र करे तो उसे अंतर्मुहूर्तमें होता है, उससे भी उग्र करे तो उसे छः महिनेमें होता है। न हो तो उसका अभ्यास बारंबार करता रहे। अभ्यास करे तो भी भविष्यमें उसे प्रगट होनेका कारण बनता है। यदि अन्दर यथार्थ गहरे संस्कार डाले तो।

वह आता है न, तत्प्रति प्रीति चित्तेन वार्तापि ही श्रुताः। प्रीति-से भी तत्त्वकी- आत्माकी बात सुनी है कि आत्मा कोई अपूर्व है, ऐसा गुरुदेवने बताया है। अंतरकी गहरी रुचि-से सुने तो वैसे संस्कार यदि उसे दृढ हो जाय तो भविष्यमें उसे वह प्रगट हुए बिना नहीं रहते। वैसा पुरुषार्थ भविष्यमें फिर-से उत्पन्न होनेका उसे कारण बनता है। अतः ऐसा कारण डाले, यदि प्रगट न हो तो बारंबार ऐसा अभ्यास करता रहे। अभ्यास करता रहे तो भी अच्छा है।

मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, ये सब मैं नहीं हूँ। जो एकत्वबुद्धि अनादिकाल-से दृढ हो रही है, क्षण-क्षणमें शरीर-से भिन्न मैं हूँ, वह तो उसे मालूम नहीं है, वह मात्र विचार-से नक्की करता है। परन्तु क्षण-क्षणमें मैं भिन्न ही हूँ। ये विकल्प हो वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे क्षण-क्षणमें उसे भिन्न करनेका, अंतर-से महिमापूर्वक (करे)। रुखे भाव-से नहीं। आत्मा कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। ऐसी उसको महिमा आकर अंतरमें-से बारंबार मुझे यही ग्रहण करने योग्य है और यही वस्तु सर्वस्व है। इसप्रकार वह बारंबार परिणति दृढ करता रहे। उसका विचार, उसका वांचन सब करता रहे तो वह अभ्यास करने जैसा है।

गुरुदेव कहते थे, छोटीपीपरको घिसते-घिसते चरपराई प्रगट होती है। वैसे बारंबार अभ्यास करने-से अंतरमें-से प्रगट होनेका कारण बनता है। छाछमें मक्खन होती है। उसे बिलोते-बिलोते मक्खन बाहर आता है। वैसे बारंबार यदि यथार्थ अभ्यास हो, अपना अस्तित्व ग्रहण करके कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बारंबार अभ्यास करे तो भेदज्ञान प्रगट