Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

१७६ होनेका कारण बनता है। यथार्थ कारण हो तो कार्य आता ही है। बाकी आत्मा भिन्न है।

जैसे स्फटिक स्वभाव-से निर्मल है, वैसे आत्मा स्वभाव-से-वस्तु-से तो निर्मल है। उसमें लाल-पीला प्रतिबिंब उत्पन्न होता है, वह तो बाहरके फूलका उठता है। ऐसे कर्मके निमित्त-से जो विभाव भाव होता है, उसमें परिणति अपनी होती है, पुरुषार्थकी मन्दता-से। वह जड नहीं करवाता। अपनी परिणतिकी मन्दता-से होती है। परन्तु उसे वह पलट सकता है कि मैं तो चैतन्य हूँ और यह मेरा स्वभाव नहीं है। इसप्रकार परिणतिको भिन्न करके, मैं तो एक शुद्धात्मा हूँ, ये सब विभावभाव है, उसे प्रयास करके अंतरमें उसका भेदज्ञान करे। बारंबार उसकी दृढता करे।

आत्मामें ज्ञान और आनन्द भरा है, वह अपनेमें-से प्रगट होता है, बाहर-से कहीं- से नहीं आता है। बाहरमें-से कुछ आ जाता है या बाहरमें-से आनन्द या ज्ञान नहीं आते। देव-गुरु-शास्त्र मार्ग बताये। वह ज्ञान प्रगट होनेका कारण बनता है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है।

अनादिकाल-में जो देशनालब्धि होती है (उसमें) कोई गुरु मिले, कोई देव मिले तो अंतरमें स्वयं ग्रहण करता है। परन्तु ऐसे गुरुके उपदेशका निमित्त बनता है। उपादान अपना है। परन्तु ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि गुरुके उपदेशका निमित्त बनता है। पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। ज्ञायकको ग्रहण करना। ज्ञायकको ग्रहण कैसे करना? उसका मार्ग भिन्न-भिन्न नहीं है। एक ज्ञायकको ग्रहण करना। वस्तु-मार्ग एक ही है। उसकी प्रतीति, उसका ज्ञान, उसकी लीनता। उसके लिये सब लगनी, महिमा, उसका अभ्यास बारंबार वही करनेका है।

मुमुक्षुः- पहले ज्ञानलक्षण-से, ये जो पंद्रहवी गाथामें आया कि ज्ञानलक्षण-से..

समाधानः- ज्ञानलक्षण-से आत्माकी पहिचान होती है। ज्ञानलक्षण-से पूरे ज्ञायकको ग्रहण करना। ज्ञानलक्षण एक सामान्य आत्माका लक्षण कि जिसमें भेद नहीं है, ऐसा ज्ञायक। कोई पर्यायका भेद, पर्यायके भेद पर भी दृष्टि नहीं रखकर मैं पूर्ण ज्ञायक हूँ, उस ज्ञायकको ग्रहण करे तो ज्ञायक ग्रहण होता है।

इतना जाना, इतना जाना, इतना जाना वह मैं, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञायक जो जाननेवाला है, वही मैं हूँ। उसे ग्रहण करना। ज्ञानकी अनुभूति-ज्ञायककी अनुभूति है वही मैं हूँ। विभावकी जो अनुभूति हो रही है वह मैं नहीं हूँ। ज्ञायककी अनुभूति है वही मैं हूँ। रागमिश्रित जो स्वाद आये वह मैं नहीं। परन्तु मैं एक ज्ञायक, अकेला ज्ञायक, जिसमें अकेला ज्ञायक ही है, चारों ओर ज्ञायक ही है, वह मैं हूँ। .. मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करना वही (उपाय है)। रागमिश्रित जो ज्ञान होता है-विकल्पमें, वह विकल्प मैं नहीं हूँ, अपितु मैं ज्ञान हूँ। इसप्रकार ज्ञानको ग्रहण करना।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!