१७६ उसे साधक दशा सधती है। ज्ञानमें दोनों पहलू आये तो साधक दशा है, एकान्त हो जाये तो भी साधक दशा सधती नहीं।
पर्यायमें कुछ नहीं है, विभाव नहीं है, कुछ नहीं है ऐसा माने, एकान्त ऐसा माने तो साधक दशामें कुछ करना ही नहीं रहता। यदि एकान्त माने तो कुछ करना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें अभेद आये यानी क्या?
समाधानः- ज्ञान एक अभेद एक द्रव्यको स्वीकारता है और ज्ञान पर्यायको भी स्वीकारता है, दोनोंको स्वीकारता है। ज्ञान अकेली पर्यायको स्वीकारता है, ऐसा नहीं है। ज्ञान अभेदको भी स्वीकारता है और ज्ञान भेदको भी स्वीकारता है। ज्ञान सब स्वीकार करता है।
मुमुक्षुः- अभेदको ज्ञान स्वीकारता है वह दृष्टिका विषय अभेद है, वह द्रव्य?
समाधानः- हाँ, दृष्टिका विषय अभेद है, उसका ज्ञान स्वीकार करता है। दृष्टि जो स्वीकारती है, वही ज्ञान स्वीकारता है। ज्ञान उसे अलग नहीं स्वीकारता। केवलज्ञान प्रगट हो, मुनिदशा प्रगट हो, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब प्रगट होता है, सब पर्याय प्रगट होती है और वह सब पूजनीय कहनेमेें आता है। सब पूजनीय है। सादखदशा या पूर्ण केवलज्ञान हो, सिद्धदशा हो, वह सब पर्यायमें प्रगट होता है, वह सब पूजनीय है। दृष्टि एकको ग्रहण करती है। एक पर जोर आये तो ही साधकदशा सधती है।
..चारों ओर विचार करता रहे, लेकिन एक वस्तु पर स्थिर नहीं होता है तो आगे नहीं जा सकता। विचार चारों ओर करे। विचार, जाननेमें सब आता है। यहाँसे भावनगर जाना हो तो किस रास्ते पर आता है, यह नक्की कर लिया। वहाँ स्थिर होकर उस मार्ग पर चलने लगे। लेकिन ज्ञानमें सबका ख्याल रहता है। बीचमें क्या- क्या आता है और कैसे जाना, कहाँ जाना वह सब ज्ञानमें ख्यालमें रहता है। लेकिन एक बातको यदि स्थिर नहीं करे कि यहीं जाना है, एक पर स्थिर नहीं होता है तो आगे नहीं जा सकता। द्रव्य यही है और इसी द्रव्यको साधना है। यह द्रव्य जो अनादिअनन्त वस्तु है, उसकी पर्यायमें विभाव होता है। एक वस्तु शुद्धात्मा उसे ही साधना है। वहाँ एक पर दृष्टिको-प्रतीतको स्थिर करे और यदि आगे बढे तो जा सकता है। लेकिन ज्ञानमें उसे सब ख्याल (होता है), बीचमें क्या-क्या आता है, क्या विभाव, क्या स्वभाव सबका ख्याल रखकर दृष्टिके जोरमें आगे जाता है। दोनों साथमें होना चाहिये, नहीं तो मार्ग सधता नहीं।
मुमुक्षुः- उसे ही दृष्टि मुख्य करती है।
समाधानः- उसे दृष्टि स्थिर करती है कि ज्ञानमें यह जाना, फिर दृष्टि-प्रतीतमें