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स्थिर करे कि यही वस्तु है, उस पर स्थिर होकर, दृष्टिको उस पर थँभाकर आगे जाता है। वस्तु यह है, उस पर दृष्टिका जोर आता है। इसलिये उसमें बाकी सब गौण होता है। चारों ओर नजर करता रहे तो (नहीं होता)। एक ध्येय बान्धे, यह दृष्टि। एक द्रव्यको ग्रहण किया, फिर उसमें क्या-क्या है और आगे जाना है, यह ज्ञान जानता है। दोनों साथमें होने चाहिये।
दृष्टिको मुख्य इसलिये कहनेमें आती है कि ज्ञान जाने, परन्तु एक वस्तुको स्थिर नहीं करे, प्रतीतमें दृढता नहीं लाये कि यह एक वस्तु है, उसकी साधना करु और उस पर दृष्टि स्थिर नहीं हो तो आगे नहीं जा सकता। इसलिये दृष्टि मुख्य है। लेकिन ज्ञानमें यह सब जाने नहीं कि वस्तु क्या, उसकी पर्याय क्या, विभाव क्या, उसका स्वभाव क्या, साधकदशा क्या, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र क्या, उसे जाने नहीं तो आगे नहीं जा सकता। दृष्टि स्थिर हो गयी इसलिये अब ऐसे ही चला जायेगा। ऐसे चला नहीं जाता।
मार्गको चारों ओरसे जाने बिना चल नहीं सकता। निषेध करे, ऐसे आगे जा नहीं सकता। मैं तो एक अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ, उसमें कुछ हुआ ही नहीं, अब कुछ नहीं करना है। ऐसे आगे नहीं जा सकता। ज्ञान विभावका विवेक, स्वभाव- विभावका (विवेक) न करे तो आगे नहीं जा सकता।
मुुमुक्षुः- दृष्टिको समर्थन है? समाधानः- हाँ, समर्थन देता है। दृष्टिका बल बढता है। दृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है और ज्ञान सम्यक हो वह सबको समर्थन देता है और आगे बढा जाता है।
.. करना ही नहीं रहता, ऐसा उसका अर्थ हो जाता है। कुछ है ही नहीं आत्मामें, फिर क्या करना? पर्याय ही नहीं है, तो फिर क्या करना रहा? कुछ भी नहीं करना है। प्रतीतको दृढ किये बिना आगे नहीं जा सकता। ज्ञानमें जानता रहे कि उत्पाद- व्यय ऐसे हैं, आत्मा ऐसा है, शुद्ध ऐसा है, अशुद्ध ऐसा है, विभाव ऐसा और स्वभाव ऐसा, द्रव्य शुद्ध आदि सब विचार करे, परन्तु एक वस्तु ज्ञायकको ग्रहण करके उस पर दृष्टि स्थिर करे, प्रतीत दृढ करके यदि....