१८२ है। जबतक ज्ञायकता नहीं है, तबतक कर्ताबुद्धि खडी ही है।
मुमुक्षुः- कर्ताबुद्धि अशुभ परिणाममें भी है और शुभ परिणाममें भी है।
समाधानः- दोनोंमें है, दोनोंमें कर्ताबुद्धि खडी है।
मुमुक्षुः- उसे समझकर अशुभको टालकर शुभके पुरुषार्थमें आत्मार्थी जीव ऐसी पात्रता प्रगट करनेका भाव भी लाता है?
समाधानः- हाँ, उसे भाव आता है, आते रहते हैं। अशुभमें या शुभमें दोनोंमें कर्ताबुद्धि खडी है। एकमें खडी है उसे दोनोंमें खडी है। ज्ञायकता हो, सहज भेदज्ञान दशा हो तब उसे ऐसा होता है कि ये जो परिणति होती है, वास्तविक रूप-से स्वभाव- से मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। ये राग-द्वेषके परिणाम जो होते हैं, वह होते हैं। परन्तु वह समझता है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। कर्मके उदयकी जबरजस्ती-से यानी मुझे जबरन करवाता है, ऐसा नहीं है। वह जानता है कि पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। परन्तु वास्तविक रूप-से मेरी ज्ञायकता छूटकर उस जातकी उसकी कर्ताबुद्धि नहीं होती। ज्ञायकता उसके साथ ही रहती है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थकी मन्दता भी पुरुषार्थपूर्वक है, ऐसा वह जानता है।
समाधानः- वह जानता है। पुरुषार्थकी मन्दता है।
मुमुक्षुः- उस प्रकारका ऊलटा पुरुषार्थ...
समाधानः- ऊलटा पुरुषार्थ भी उसमें है ऐसा समझता है। बाकी जहाँ सहज नहीं है, वहाँ तो सबमें कर्ताबुद्धि खडी है। बुद्धिपूर्वक नक्की करे कि मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। पर पदार्थका कर्ता नहीं हूँ, राग-द्वेषका वस्तु स्वभाव-से मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, ऐसा बुद्धि-से नक्की करे, बाकी कर्ताबुद्धि खडी है।
मुमुक्षुः- कर्ताबुद्धि खडी है। बुद्धिपूर्वक ऐसा नक्की करता है फिर भी उसे सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग प्राप्त करना है, इसलिये अशुभको टालकर शुभमें भी आता है।
समाधानः- शुभमें जुडता है, आत्माका लक्ष्य करनेका प्रयत्न करता है, ऐसा करता है। ... दशा प्रगट हो, वस्तु अनादिअनन्त सहज है। और उसकी ज्ञायकता जो सहज है, वह सहजकी परिणति जब उसे स्वभावदशा प्रगट हो, ज्ञायकता हो तब कर्ताबुद्धि छूटी ऐसा कहनेमें आता है। जब सहजता प्रगट हो, तब कर्तृत्व छूटा ऐसा कहनेमें आये।
अन्दर सहज दशा, सहज ज्ञायक परिणति नहीं है, तबतक कर्ताबुद्धि छूटी नहीं है। फिर उसे अल्प पुरुषार्थकी मन्दताकी परिणति रहती है। ज्ञानीके लिये ऐसा कहनेमें आता है कि वह होता है, वह करता नहीं है, अपितु होता है।
मुमुक्षुः- और फिर भी वास्तविक रूप-से देखा जाय तो उतनी पुरुषार्थकी मन्दता