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है, वह भी अपने-से हुयी है।
समाधानः- हाँ, करने-से हुयी है।
मुमुक्षुः- वह भी ज्ञानमें साथ-साथ है।
समाधानः- ज्ञानमें जानता है।
मुमुक्षुः- और फिर भी वह सहज है, इसलिये उसे आकुलता भी नहीं होती है।
समाधानः- आकुलता नहीं होती।
मुमुक्षुः- उस पहलूका भी उसे ज्ञान है।
समाधानः- अपने स्वभावकी सहज दशा खडी रखकर वह होता है। और अपनी मन्दताके कारण (होता है)। ... उससे स्वयं भिन्न पड गया है इसलिये मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। उसका चैतन्यका अस्तित्व जो है, वह अपनी परिणति-से भिन्न कर दिया है। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे अपने सहज स्वभावको भिन्न कर दिया है। एकत्वबुद्धि टूट गयी है, इसलिये मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, परन्तु वह होता है। मेरी मन्दताके कारण वह होता है।
मेरी ज्ञायकदशा सहज है, मेरी मन्दताके कारण यह होता है। मेरी ज्ञायक दशाकी न्यूनता है और पुरुषार्थकी मन्दता है इसलिये होता है। उसके ख्यालमें उसकी मुख्यता रहती है। पुरुषार्थकी परिणति उठे तो सब छूट जाय ऐसा है। तो अंतरकी दशा प्रगट होकर सब विभाव टल जाय, ऐसा है। पुरुषार्थकी मन्दताके कारण ही वह खडा है। कोई काललब्धि उसे रोकती है या दूसरे कोई समवाय उसे रोकता है, कोई उसे रोकता नहीं है। अपनी मन्दताके कारण वह सब खडा है, ऐसा वह बराबर जानता है। परन्तु उतनी स्वयंकी पुरुषार्थकी डोर उठती नहीं है, ऐसा वह जानता है।
अमुक समय चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें रहकर फिर भावना भाकर मुनि होते हैं। जब पुरुषार्थ उत्पन्न होता है तब सब छूट जाता है। ऐसी परिणति है कि कर्ता दिखे, फिर भी उसे ज्ञाता कहते हैं। उसे होता है, होता है ऐसा कहते हैं और कर्ता नहीं है। ऐसा किया, ऐसा बोले। उसकी बोलनेकी भाषामें ऐसा आये। फिर भी कहते हैं कि ज्ञाता है। ऐसी कर्ता, ज्ञाताकी परिणति (है)।
(अज्ञानीको) तो एकत्वबुद्धि है इसलिये वह करता ही है। वह छोडकर बैठा हो तो भी उसे कर्ता कहनेमें आता है। (ज्ञानी) गृहस्थाश्रममें हो तो भी उसे ज्ञाता कहनेमें आता है। समयसारमें आता है न कि, मुनि हो गया, परन्तु अन्दर कर्ताबुद्धि खडी है तो कर्ता ही है। छोडा तो भी कर्ता है। (ज्ञानी) गृहस्थाश्रममें है तो भी ज्ञाता है।