हो जाता हो तो वांचन करना, विचार करना। अनेक प्रकार-से उपयोगको बदलते रहना।
मुमुक्षुः- आपकी वाणी बहुत मीठी और सरल लगती है। इतनी सरल लगती है कि अन्दरमें सब समझमें आता है।
समाधानः- कोई बार उग्र हो, कोई बार धीरे हो, जिज्ञासुको ऐसा होता रहता है। ... बीचमें होता है। निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध है। इसलिये जितना सत्समागम हो उस प्रकारका प्रयत्न करना। और अपनी तैयारी करनी। करनेका स्वयंको ही है। उसका स्वभाव है वह सहज है। परन्तु परिणतिको पलटना वह पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ और सहज, ऐसा है।
मुमुक्षुः- अभी तक गुरुदेवश्रीको सुनते थे, सब करते थे, परन्तु उसमें अपेक्षा ज्ञान, गुरुदेवका हृदय गांभीर्य क्या है, वह हमें बराबर समझमें नहीं आता था। इसलिये गुरुदेव बहुत अपेक्षाएँ लेतेे थे। परन्तु हम शब्दोंमें ही ले जाते थे और समझमें नहीं आता था। आपके प्रताप-से हमें थोडा समझमें आने लगा। महिमा भी आती है, लगता है कि अहो! यही सत्य है। ऐसा मार्ग है, पहले ... जैसे आपने कहा, जिसे लगी है उसीको लगी है, पिहू पिहू पुकारता है। उसके लिये वैसी उत्कंठा जागृत नहीं होती है, तो उसमें हमारी क्या भूल होती होगी? अथवा हमें किस प्रकार-से वैसा लगे, आप दर्शाईये।
समाधानः- अंतरमें उतनी पुरुषार्थकी मन्दता रहती है, बाहरमें अटक जाता है इसलिये। अंतरमें बस, यही करनेका है, सत्य यही है। स्वभावमें ही सुख है, सब स्वभावमें भरा है। बाहर कहीं नहीं है। उतनी अंतरमें रुचिकी तीव्रता नहीं है। इसलिये पुरुषार्थकी मन्दता है। रुचि है, परन्तु रुचिकी मन्दताके कारण, पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह तीव्रता नहीं हो रही है। तीव्रता हो तो पुरुषार्थ उत्पन्न हुए बिना रहे नहीं। मन्दता रहती है, अपनी ही मन्दता रहती है। उसका कारण अपना है, अन्य किसीका कारण नहीं है। अपनी रुचि मन्द है और अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। इसलिये उसमें रुक गया है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि सूक्ष्म उपयोग करके ज्ञायकको पकडना। सूक्ष्म उपयोगमें क्या गूढार्थ है? प्रयोगात्मक पद्धति-से सूक्ष्म उपयोग (करना)?
समाधानः- उपयोग बाहरमें स्थूलरूप-से बाहर वर्तता रहता है। स्वयं स्थूलता- से बाह्य पदाथाको जाननेका प्रयत्न करे, विकल्पको पकडे वह सब स्थूल है। परन्तु अन्दर आत्माको पकडना वह सूक्ष्म है।
आत्माका जो ज्ञानस्वभाव, ज्ञायकस्वभावको पकडना वह सूक्ष्म उपयोग हो तो पकडमें आता है। क्योंकि वह स्वयं अरूपी है। वह कहीं वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शवाला नहीं