२१८ नहीं है, थोडा रहा है। ऐसा है।
मुमुक्षुः- कल्पना करनी भी मुश्किल पडे ऐसा हो गया है।
समाधानः- हाँ, थोडा रहा है। ये तो गुरुदेवके प्रताप-से इतना प्रचार हो गया। और सबको ऐसा हो गया कि अंतरमें कुछ अलग करना है, ऐसी सबकी दृष्टि हुयी कि करना अंतरमें है। चारों ओर हिन्दुस्तानमें इतना प्रचार हो गया। नहीं तो एकदम (क्षीण) हो गया था। बाह्य क्रियामें धर्म मनाते थे। ...
समाधानः- .. प्रयत्न और भावना तो रहते ही हैं, अंतरमें जबतक नहीं हो तबतक।
मुमुक्षुः- बहुत बार विचार आता है कि गहरी जिज्ञासा, आप कहते हो, गहरी जिज्ञासा चाहिये। तो गहरी जिज्ञासा किस प्रकारकी होगी? वैसी गहरी जिज्ञासा अपनेमें क्यों प्रगट नहीं होती है?
समाधानः- (उसके बिना) उसे चैन पडे नहीं। अंतरमें उसकी परिणति वहाँ जाकर ही छूटकारा हो, ऐसी अंतरमें-से उग्र परिणति प्रगट हो तो हो।
मुमुक्षुः- वह निरंतर अखण्ड रहनी चाहिये।
समाधानः- निरंतर अखण्ड रहे तो प्रगट होता है। एक अंतर्मुहूर्तमें किसीको प्रगट हो वह बात अलग है। बाकी अभ्यास करते-करते बहुभाग होता है।
मुमुक्षुः- जितनी गहराईमें जाये, उसका गहरा भाव ग्रहण होकर परिणमन हो जाना चाहिये, उसमें अभी बहुत देर लगती है।
समाधानः- जितनी अन्दर भावना हो उस अनुसार उसका पुरुषार्थ (चलता है)। और वह सहजरूप-से अन्दर हो जाय तो उसे हुए बिना रहे नहीं। जैसे दूसरा सब सहज हो गया है, वैसे अपनी तरफका पुरुषार्थ भी उसे सहज एकदम उग्ररूप-से हो तो हो। बार-बार उसे छूट जाय और करना पडे, उसके बजाय उसे सहज उस तरफकी उग्रता, भावना, उस ओर तीखा पुरुषार्थ रहा ही करे तो होता है।
दूसरा सब सहज अभ्यास जैसा हो गया है, विभावका तो। वैसे यह उसे सहज (हो जाना चाहिये)। मैं ज्ञान-ज्ञायकमूर्ति हूँ, वैसा सहज अंतरमें-से उस जातकी परिणति बन जाय, भले अभ्यासरूप हो, तो उसे अंतरमें आगे बढनेका कुछ हो सकता है।
मुमुक्षुः- वेदन ऐसा होना चाहिये कि जिससे वह प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे।
समाधानः-हाँ, चैन न पडे, ऐसा वेदन उसे अन्दर-से आना चाहिये। अपना स्वभाव ग्रहण करे, परन्तु वह मन्द-मन्द नहीं होकरके ऐसा वेदन अन्दर-से प्रगट हो कि वह प्राप्त न हो तबतक चैन न पडे। ऐसा हो तो उसे अन्दर-से उग्र आलम्बन और उग्र परिणति अपनी तरफ जाय तो वह प्रगट हुए बिना रहे ही नहीं। आकुलतारूप नहीं,