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परन्तु उसे अन्दर-से वेदन ही ऐसा होता है कि परिणति बाहर टिकनेके बजाय, एकत्वबुद्धि टूटकर अंतरमें ज्ञायक परिणति हो, ऐसी उग्रता होनी चाहिये। फिर विशेष लीनताकी बात बादमें रहती है। परन्तु ये ज्ञायककी परिणति उसे भिन्न होकर एकदम परिणमनरूप हो, ऐसा उग्र वेदन उसे अन्दर-से आना चाहिये।
मुमुक्षुः- उतना हो तो भी बहुत है। उतना हो। फिर आगे चारित्रकी एकाग्रता अलग बात है।
समाधानः- उसका अंतरमें बार-बार अभ्यास करता रहे। वह उग्र कैसे हो, ऐसी भावना करते-करते उग्र हो तो काम आये। परन्तु अभ्यास करनेमें थकना नहीं। अभ्यास तो करते ही रहना। उसे छोडना नहीं। उसकी सन्मुखता तरफका प्रयत्न छोडना नहीं।
मुमुक्षुः- सन्मुखतामें थोडा ख्याल आये, माताजी! फिर तो छूटे नहीं। परन्तु मूलमें जो भावभानसरूप-से ज्ञायक लक्ष्यमें आना चाहिये, वह कोई बार आये, फिर तो कितने ही समय तक ऐसा लगे कि ये तो जो ख्याल आता था वह भी नहीं आता है, ऐसा भी हो जाता है। वह ग्रहण होकर टिका रहे तो-तो उल्लास बढे, सब हो और आगे बढना हो। परन्तु ऐसी परिस्थिति कभी-कभी हो जाती है कि कभी दो-चार- छः महिनेमें थोडा ख्याल आया...
समाधानः- फिर-से स्थूल हो जाता है न, इसलिये बाहर स्थूलतामें चला जाता है। इसलिये उसे सूक्ष्मता होनेमें देर लगती है। ऐसा हो जाय। वैसा उसे अंतरमें-से फिर-से लगनी लगे तो हो सकता है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुषोंको धन्य है कि उन्होंने ऐसी परिणतिको धारावाही टिकाकर अपना कार्य कर लिया।
समाधानः- .. वह अंतरमें-से आगे जाता है। धारावाही परिणति तो बादमें होती है, परन्तु ये उसका अभ्यास।
मुुमुक्षुः- अभ्यासमें धारावाही। समाधानः- धारावाही। खण्ड पड जाय और स्थूल हो जाय, इसलिये फिर-से सूक्ष्म होनेमें और ज्ञायकको ग्रहण करनेमें देर लगती है। ऐसे बार-बार चलता है। परन्तु ऐसे ही बारंबार ऐसा उग्र अभ्यास करे तो उसे हो।
मुमुक्षुः- परिणति संयोगाधीन हो जाती है। मुमुक्षुः- .. श्रद्धागुण और ज्ञानगुण दोनोंका साथमें होना वह श्रद्धा है? वह पक्का निर्णय?
समाधानः- प्रतीतकी श्रद्धा भी कहते हैं और ज्ञानमें दृढता, दोनों कहते हैं। विचार करके निर्णय करे। ज्ञानकी दृढता और श्रद्धाकी दृढता, दोनों। दोनों कहनेमें आता है।