२२० पक्का निर्णय, लेकिन अन्दर विचार-से निर्णय करे वह अलग है। अन्दर स्वभाव परिणतिमें- से निर्णय आवे वह अलग है। ये तो विकल्पात्मक निर्णय है। धारणा अर्थात रटा हुआ, स्मरणमें रखा हुआ, गुरुदेवके उपदेश-से ग्रहण किया हुआ, विचार-से नक्की करे कि बराबर ऐसा ही है, वह पक्का निर्णय। वह निर्णय ज्ञान-से भी होता है और प्रतीतमें भी होता है।
मुमुक्षुः- फिर तो अनुभूति हो तभी पक्का निर्णय कहा जायेगा न?
समाधानः- अनुभूति हो तब कहा जाय। परन्तु अनुभूति होने पूर्व उसे यथार्थ कारण प्रगट हो तब भी निर्णय होता है। परन्तु ये तो अभी विकल्पात्मक, पहलेका निर्णय है वह स्थूल है। उसके बाद जो अनुभूतिपूर्वकका निर्णय होता है वह यथार्थ है।
मुमुक्षुः- और जिनवाणीमें सबमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों गुणकी मुख्यता- से ज्ञायकको कैसे प्राप्त करना वह आता है, तो ज्ञायकमें अनन्त गुण है, जीवमें तो अनन्त गुण है तो फिर ये तीन गुण ही विभाव परिणतियुक्त हैं? कि उनकी शुद्धता- से ज्ञायककी प्राप्ति होती है?
समाधानः- अनन्त गुण विभावरूप नहीं परिणमे हैं। साधक दशामें तीन आते हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र। दर्शन यथार्थ होता है तो ज्ञान भी यथार्थ होता है। फिर चारित्र बाकी रहता है। फिर लीनता होती है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन हो तो सब शुद्ध होता है। अनन्त गुण सब अशुद्ध नहीं हुए हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी.... एक सम्यग्दर्शन होता है तो सर्व गुणोंकी परिणति सम्यकरूप हो जाती है। एक चक्र फिरे, दिशा पर तरफ है, स्व तरफ आये तो पूरा चक्र स्व तरफ होता है।
मुमुक्षुः- थोडा कठिन लगता है।
समाधानः- न हो तबतक... छोड देनेसे (क्या होगा)? रुचि करते रहना, भावना करते रहना, करना तो एक ही है-आत्माको ग्रहण करना वही है।
मुमुक्षुः- मुनिराजको तीन कषायकी चौकडी (गयी है), उतनी शुद्धता होती है और थोडी अशुद्धता होती है, तो चारित्रगुणकी एक पर्यायमें शुद्धता-अशुद्धता दोनों साथमें रहती है?
समाधानः- दोनों साथ रहते हैं। उसके अमुक अंश शुद्ध होते हैं और थोडी अशुद्धता है। मुनिराजको वीतराग दशा नहीं हुयी है, इसलिये थोडा संज्वलनका कषाय है। चारित्र बहुत प्रगट हुआ है। थोडी अशुद्धता रहती है।
मुमुक्षुः- और वह शुद्धिकी वृद्धि शुद्धोपयोग होता जाय तभी होती है?
समाधानः- हाँ, शुद्धोपयोग (होने-से) अन्दर शुद्धिकी परिणति होती जाती है। विरक्त दशा, अंतर-से विशेष-विशेष अंतरमें लीनता होती जाती है, लीनता बढती जाती