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है। इसलिये आगे जाते हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञान सो आत्मा। भेद पडा इसलिये ११वीं गाथा अनुसार सदभुत व्यवहारनय हुआ, अभूतार्थ यानी परद्रव्य जैसा हुआ, तो ज्ञानकी पर्याय पूरा आत्मा स्वद्रव्य ज्ञात होता है? अनुभूति होती है?
समाधानः- गुण-गुणीका भेद पडता है इसलिये सदभुत व्यवहार है। अभूतार्थ यानी उसमें आप जैसे कहते हो वह नयका स्वरूप है, ऐसा नहीं है। द्रव्यदृष्टि-से पर कहनेमें आता है। वह पर्याय अपनी ही है। उसे द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से भेद आत्मामें नहीं है, आत्मा तो अखण्ड है। अखण्ड वस्तु है। उसमें भेद करना, पूर्ण और अपूर्णका भेद पडे उस अपेक्षा-से उसे पर कहनेमें आता है। वास्तविक रूप-से वह जड है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। वह जड नहीं है, चैतन्यकी पर्याय है।
मुमुक्षुः- अपनी?
समाधानः- है अपनी पर्याय, परन्तु उसमें भेद पडता है इसलिये द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा- से उसे पर कहनेमें आता है। वह आपने क्या कहा अभूतार्थ? ... बाकी उस अशुद्ध पर्यायको कोई अपेक्षा-से अपनी कहनेमें आती है। इसलिये उसे असदभुत व्यवहार कहनेमें आता है। व्यवहारके बहुत भंग है।
... कोई अपेक्षा-से अपनी कहनेमें आती है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से उसे पर कहनेमें आता है और भेद पडे, अपनी पर्याय है इसलिये अपनी कहनेमें आती है।
मुमुक्षुः- और जिस समय अनुभूति हो, उस वक्त तो पर्याय रहित द्रव्य ज्ञायक, एकरूप ज्ञायक ही...
समाधानः- पर्याय रहित द्रव्य नहीं हो जाता। मुमुक्षुः- नहीं, वर्तमान पर्याय तो बाहर रह जाती है न? समाधानः- पलट जाती है। अशुद्ध पर्याय पलटकर शुद्ध पर्याय होती है। द्रव्य पर दृष्टि देने-से शुद्ध परिणति प्रगट होती है। पर्याय रहित द्रव्य नहीं हो जाता, पर्यायकी शुद्ध परिणति होती है। ... परन्तु ज्ञानमें सब ध्यान रखना। पर्याय रहित कोई द्रव्य होता नहीं। परन्तु उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसका भेद पडता है, उसे लक्ष्यमें लेने- से विकल्प आता है। इसलिये उसे लक्ष्यमें नहीं लिया जाता। परन्तु उसकी परिणति तो होती है। उसकी स्वानुभूति प्रगट होती है, वही पर्याय है। परिणति तो होती है। द्रव्य स्वयं पर्यायरूप परिणमता है, परन्तु उस पर लक्ष्य नहीं रखना है। पर्याय उसमें- से निकल नहीं जाती, पर्याय परिणमती है। द्रव्यकी दृष्टि प्रगट करनी है। बाकी ज्ञानमें तो पर्याय है, ऐसा रखना है और वह परिणति द्रव्यकी ही होती है, स्वानुभूतिमें।