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मुमुक्षुः- कषायकी कालिमा है, ज्ञानमें नहीं है। ज्ञानमें कालिमा नहीं है?
समाधानः- ज्ञानमें कालिमा नहीं है, विभावकी जो परिणति राग-द्वेषवाली होती है, वैसी राग-द्वेषकी परिणति ज्ञानमें नहीं है। ज्ञानमें जाननेका दोष होता है। ज्ञानमें जाननेका दोष है। जो स्वरूप हो उससे अन्यथा जाने, विपरीतपने जाने। श्रद्धाके कारण ज्ञानमें दोष आता है। श्रद्धा अलग है और ज्ञान भी अलग है। उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं।
मुमुक्षुः- चारित्रगुण जैसे विपरीतपने परिणमता है,...
समाधानः- विपरीतपने परिणमे ऐसा विपरीत नहीं है। परन्तु उसे श्रद्धाकी विपरीतता है। जाननेमें विपरीतता है। कषायकी कालिमा है ऐसा नहीं है। इसलिये विपरीत-विपरीतमें फर्क है। इसकी विपरीतता जाननेकी है और उसमें रागकी परिणतिकी है। कषायकी कालिमा मलिन है और उस जातका मलिन ज्ञानको कहनेमें आये, जाननेकी अपेक्षा- से। दोनोंकी परिणति अलग है। रागकी परिणति अलग और श्रद्धा और ज्ञानकी परिणति अलग प्रकार-से काम करती है। है वह भी विपरीत है। श्रद्धा मिथ्या है इसलिये ज्ञान भी मिथ्या है।
मुमुक्षुः- आपने ऐसा कहा था कि आत्माको नहीं जानता है, वह उसका- ज्ञानका दोष है। परन्तु जैसे चारित्रमें कषायकी कालिमा है, वैसी कालिमा इसमें नहीं है।
समाधानः- जाननेका दोष है। वैसी कालिमा नहीं है, जाननेका दोष है। मुुमुक्षुः- .. ज्ञान है वह भी एक प्रकार-से स्वभावका अंश कहलाता है न? समाधानः- स्वभावका अंश अर्थात इन्द्रियज्ञान स्वको नहीं जानता है इसलिये पर तरफ जाता है, परन्तु वह स्वभाव छोडकर कहीं बाहर तो जाता नहीं। वह तो मानता है कि मैं बाहर चला गया। स्वभाव छोडकर कहीं बाहर नहीं जाता है। परन्तु मान्यता ऐसी है कि मानों अपना ज्ञान बाहर चला जाता है और बाहर-से ज्ञान आता है, ऐसा मानता है। स्वभावको छोडकर तो कहीं नहीं जाता।
... पडे ही हैं। भले निगोदमें हो। स्वभावका अंश तो है, उसका कहीं नाश नहीं होता। स्वभावका अंश हो, वह ज्ञानपने स्वयं जानता है कहाँ? मानों बाहर- से ज्ञान आता है और मानों मैं बाहर जाता हूँ। मान्यता जूठी है।