Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

२२४ वह बाहर जाता है। अतः उतना उसे जाननेमें आश्रय आता है। इन्द्रियोंका, मनका आश्रय आता है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट हो गया है, उस रूप परिणति है। परन्तु अभी अधूरा है, इसलिये उतना बाहर जाता है। (अज्ञानीको) मात्र इन्द्रिय तरफका ज्ञान है, स्वका ज्ञान ही नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञानीका इन्द्रिय ज्ञान वृद्धिगत होता हुआ दिखता है। जबकि अज्ञानीका इन्द्रिय ज्ञान वृद्धिगत हो रहा हो ऐसा दिखाई नहीं देता, सामान्यतः।

समाधानः- इन्द्रिय ज्ञानका क्या प्रयोजन है? वृद्धिगत या नहीं वृद्धिगत। इसे अतीन्द्रिय ज्ञानकी परिणति बढे वही वास्तविक वृद्धि है। साधनाकी वृद्धिमें वही वृद्धि है। बाहरका वृद्धिगत दिखाई दे वह सब तो बाहर-से देखना है। उसकी वृद्धि हो उसका कोई अर्थ नहीं है। अन्दर अतीन्द्रियका परिणमन, ज्ञायककी परिणति बढती जाय, स्वानुभूति भेदज्ञानकी धारा अंतर-से जो परिणति बढती जाय, वही वास्तविक वृद्धि है। बाहरकी वृद्धि वृद्धि नहीं है।

बाहर-से बढता दिखाई दे और नहीं दिखाई दे, वह कोई देखनेकी दृष्टि नहीं है। वह कोई परीक्षा ही नहीं है। बाहर-से इतना सुना या इतना पढा, या इतनी धारणा की, ऐसा सब बाहर-से देखना, वह कहीं परीक्षा नहीं है, वृद्धि दिखाई दे वह। वैसे तो उसे वृद्धि दिखे, इसको नहीं भी दिखे। बाहर-से तो ऐसा दिखे। परन्तु अंतरकी परिणति बढे वही वास्तविक वृद्धि है।

बाहर-से किसीको इन्द्रियाँ कमजोर पड गयी हो तो बाहर-से दिखाई न दे। अतः बाहरकी वृद्धि वृद्धि नहीं है। अंतरकी परिणतिकी वृद्धि हो, वही वास्तविक वृद्धि है। देखना, सुनना, बोलना वह सब तो बाह्य आश्रय है। एक मन काम करे वह अलग बात है। मन-से आत्मा भिन्न है।

मुमुक्षुः- इन्द्रिय ज्ञान बढे उसमें कुछ महत्ता नहीं है, महत्ता गिननी भी नहीं।

समाधानः- उसमें कुछ महत्ता नहीं है। उसमें महत्ता गिनना भी नहीं। उसमें महत्ता नहीं है। वह परीक्षाका टोटल भी नहीं है। अंतरकी परिणति क्या काम करती है, यह देखना है। अंतर श्रद्धा-ज्ञान, लीनता वह सब परिणति क्या कार्य करती है, यह देखना है।

मुमुक्षुः- लोगोंको बाहरकी विस्मयता लगती है, धर्मात्माको अंतरकी विस्मयता होता है।

समाधानः- हाँ। अंतरमें ही वास्तविक परिणति है। मुक्तिका पूरा मार्ग अंतरमें है। अनादि काल-से बाहर देखनेकी दृष्टि है इसलिये बाहर देखता है। बाहरकी विस्मयता वह सच्ची नहीं है, वह परीक्षा भी नहीं है। फिर जिसे भक्ति हो, वह गुरुदेव प्रति