२३४ विभावकी परिणति जाती है। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, (ऐसे) अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि ये ज्ञायक सो मैं। वह ज्ञानगुण ऐसा है कि असाधारण है। वह लक्ष्यमें आये, ख्यालमें आये ऐसा ज्ञानगुण है। दूसरे कुछएक गुण असाधारण है जो स्वयंको जल्दी लक्ष्यमें नहीं आते हैं। परन्तु ये ज्ञानलक्षण है, दूसरेमें जाननेका लक्षण नहीं है। वह जाननेका लक्षण एक आत्मामें ही है। जानन लक्षण पर-से अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि ये जानन लक्षण जो है, उस लक्षणवाला मैं चैतन्य हूँ। उस ज्ञानके साथ जीवमें ऐसे अनन्त गुण हैं। परन्तु ज्ञानगुण-से पूरा आत्मा ग्रहण करे। उसमें अनन्त आनन्द गुण, सुख गुण सब उसमें है। परन्तु आनन्द ऐसा विशेष गुण नहीं है, उससे पकडमें नहीं आता। परन्तु ज्ञान ऐसा स्वभाव है कि उससे ग्रहण होता है। इसलिये ज्ञान द्वारा आत्मा ग्रहण हो सकता है। ज्ञानलक्षण यानी ये बाहरका जाना वह ज्ञान, ऐसे नहीं। उस ज्ञानको धरनेवाला कौन है? ज्ञेय जाना, यह जाना, वह जाना वह ज्ञान, ऐसा नहीं। परन्तु वह ज्ञान कहाँ-से आता है? उस ज्ञानको धरनेवाला, ज्ञानका अस्तित्व किस द्रव्यमें रहा है, उस द्रव्यको ग्रहण करना। ये जाना, ज्ञेय-से ज्ञान ऐसा नहीं, परन्तु मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप हूँ। उस ज्ञानको धरनेवाला कौन चैतन्य है? उसे ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- यह मुद्देकी बात आयी। ज्ञान स्वयं अपने-से जानता है, ज्ञेय-से नहीं। समाधानः- उस ज्ञानको धरनेवाला मैं चैतन्य हूँ। मुमुक्षुः- ज्ञानको धरनेवाला हूँ। समाधानः- ज्ञानको धरनेवाला मैं चैतन्य हूँ। पहले मूल अस्तित्वको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे कि मैं यह चैतन्य हूँ।