मुमुक्षुः- द्रव्य पर्यायमें आता नहीं, वह कैसे?
समाधानः- द्रव्य पर्यायमें नहीं आता अर्थात द्रव्य है वह द्रव्यस्वरूप ही है। द्रव्यका स्वरूप शाश्वत अनादिअनन्त है और पर्याय है वह क्षणिक है। वह पर्याय पलट जाती है। द्रव्य, पर्यायकी भाँति क्षण-क्षणमें पलटे ऐसा द्रव्य नहीं है। द्रव्य पर्यायमें आता नहीं अर्थात द्रव्य कहीं क्षण-क्षणमें पलटता नहीं है। द्रव्य तो एक सरीखा रहता है और पर्याय तो पलटती है। इसलिये द्रव्य पर्यायमें इस तरह नहीं आता।
बाकी पर्याय है वह द्रव्यका स्वरूप है। द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों मिलकर द्रव्यका स्वरूप है। लेकिन वह पर्याय प्रतिक्षण पलटती है। परन्तु द्रव्य पलटता नहीं है। इसलिये द्रव्य पर्यायमें नहीं आता। द्रव्य अनादिअनन्त है और पर्याय पलटती रहती है। परन्तु वह पर्याय द्रव्यके आश्रय-से होती है। पर्याय कहीं निराधार नहीं होती है। पर्याय द्रव्यके आश्रय-से ही होती है, पर्याय द्रव्यमें ही होती है।
स्वभावपर्याय जो द्रव्यके आलम्बन-से होती है, जो अनन्त गुणोंकी ज्ञानकी पर्याय हो, आनन्दकी पर्याय हो वह सब शुद्धात्माके-द्रव्यके आश्रयसे होती है। और विभाव जो होता है वह अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से होती है, विभाविक पर्याय। परन्तु वह विभावकी पर्याय अपना स्वभाव नहीं है। उसका और स्वयंका भावभेद है। अपना स्वभाव अलग और विभावपर्यायका स्वभाव भिन्न है। इसलिये उसका भावभेद है। इसलिये उससे भेदज्ञान करता है कि ये जो विभावका आकुलतायुक्त भाव है, वह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव भिन्न है। पुरुषार्थकी मन्दता-से उसकी पर्याय होती है, परन्तु वह पर्याय विभाव है, वह भाव भिन्न है। उसका भाव भिन्न है और मेरा भाव भिन्न है। उससे भेदज्ञान करता है। पुरुषार्थ तीव्र हो तो वह विभावपर्याय छूट जाती है और स्वभाव पर्याय प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ अर्थात जैसा हूँ वैसा अहंभाव होना चाहिये?
समाधानः- स्वभाव जैसा है, वैसा उसे ग्रहण करना चाहिये कि यह मैं हूँ। उसका अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये। विकल्परूप-से कि यह मैं हूँ, ऐसा नहीं, परन्तु जो ज्ञानकी धारा चल रही है, वह ज्ञान चल रहा है, उस ज्ञानको धरनेवाला एक