२७७
हाथ लग जाय तो।
स्वयं ही है, कोई अन्य नहीं है कि उसे दुष्कर पडे। स्वयं ही है। स्वयं अपने- से अपनेआपको भूला है। मूल यदि हाथ लग जाय तो सब सरल है। अपनी तरफ परिणति मुडे तो मलिनता छूट जाय, उसका भेदज्ञान होता हैै।
मुमुक्षुः- ऐसी विद्या आप दीजिये।
समाधानः- अंतरमें ऐसी लगन लगे तो युक्ति हाथ लग जाय। उसे चैन पडे नहीं, युक्ति हाथ लगे बिना। ये विभावस्वभाव, ये सब भेदभाव, मैं अखण्ड द्रव्य हूँ, कैसे है? उसे अंतरमें कहीं चैन न पडे। इसलिये स्वयं अपनेआपको अंतर-से खोज लेता है। गुरु तो मार्ग दर्शाते हैं, करना अपने हाथमें है। गुरुदेवने तो उपदेशका धोध बहाया है। करना स्वयंको बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- जिसका अंतरलक्ष्यी जीवन है, वे जब बाहरमें विकल्प होते हो, तब देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प हो या बारह भावना हो या दूसरे कोई शुभभाव हो, उसमें कोई प्रधानता देने योग्य विकल्प है कि नहीं? जैसे, देव-गुरु-शास्त्रकी प्रधानता देनी, बारह भावनाकी प्रधानता देनी, द्रव्य-गुण-पर्यायकी प्रधानता देनी, विकल्पात्मक?
समाधानः- उसे जिस प्रकारका चिंतवन चलता हो, उसकी जिस प्रकारकी परिणति हो, उस जातके भाव आते हैं। देव-गुरु-शास्त्रके आये, कभी बारह भावनाके आये, शास्त्रमें तो द्रव्य-गुण-पर्याय सब आ जाता है। उसे शुभभाव तो अनेक प्रकारके आते हैं। जिसे जहाँ जिस प्रकारकी रुचि हो, उस जातके भाव आते हैं। उस जातके भाव अमुक भूमिकामें होते हैं।
सब उसे अमुक प्रकार-से शुभभावनामें साथमें होता है। कभी कुछ मुख्य हो जाता है, कभी कुछ मुख्य होता है। प्रसंग अनुसार कभी बारह भावना मुख्य हो जाय, और देव-गुरु-शास्त्र तो उसके हृदयमें होते हैं तो वे मुख्य हो जाते हैं। प्रसंग अनुसार कभी बारह भावना (होती है), कभी श्रुतका चिंतवन (चलता है)। उसमें उसे जिस प्रकारका रस आता हो, वैसा उसे ज्यादा रहता है। और प्रसंग अनुसार वह बढ भी जाता है। ऐसा भी बनता है।
मुमुक्षुः- तीर्थंकर दीक्षा लेने-से पहले बारह भावनाका चिंतवन करते हैं, वैराग्य वृद्धिके लिये।
समाधानः- उसे दीक्षाके साथ सम्बन्ध है। एकदम वैराग्य आ गया है, बारह भावनाके साथ सम्बन्ध है। उसे दीक्षा लेनेकी जो भावना हुयी, उसके साथ उस प्रकारकी वैराग्यकी बारह भावना उत्पन्न होती है। वैराग्यका चिंतवन उन्हें आता है, मुनिदशा अंगीकार करते हैं इसलिये। उसके साथ उसका सम्बन्ध है।