Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-६)

२५४

मुमुक्षुः- ... कुछ प्रयोग करके आगे बढा जा सकता है?

समाधानः- ध्याता तो आत्मा स्वयं ध्येय अपना रखना है। और ध्यान साधनामें स्वयं कर सकता है। परन्तु वह पहचानकर, आत्माको पीछानकर कर सकता है। मैं आत्मा जाननेवाला एक ज्ञायकतत्त्व हूँ। ये जो विभाव, विकल्प आदि हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न मैं एक तत्त्व हूँ। शाश्वत द्रव्यको ग्रहण करके उस पर दृष्टि करके फिर उसमें एकाग्रता यदि हो तो ध्यान होता है। परन्तु पहले उसे बराबर आत्माको ग्रहण करना चाहिये।

ये शरीर भिन्न, अन्दर जो विकल्प आये वह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, उससे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। उसे भिन्न ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे उसकी ज्ञायकता ग्रहण करके ज्ञायकरूप परिणति करे, उसे ध्येयमें रखे कि मैं यह चैतन्य हूँ। उसे बराबर ग्रहण करके फिर उसमें लीनता करे तो ध्यान होता है। तो एकाग्र होता है। ध्याता और ध्येय दोनों स्वयं ही है। ध्यान जो करनेका है एकाग्रता, उसमें एकाग्रता होता है। परन्तु ध्येयको बराबर ग्रहण करना चाहिये। ध्याता ध्यान करनेवाला स्वयं, परन्तु ध्येय आत्मा है, उस आत्माको बराबर ग्रहण करे तो ध्याता, ध्यान और ध्येयका भेद अंतरमें लीन होता है तो सब अभेद हो जाता है।

मुमुक्षुः- ध्यानमें लीन होता है उस वक्त द्रव्य-गुण-पर्यायकी क्या स्थिति होती है?

समाधानः- अंतरमें लीन हो तब? द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मामें है। द्रव्य और गुण। अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। और परिणति जो है, वह विभाव तरफ थी, वह स्वभाव तरफ परिणति जाय तो स्वभावकी पर्याय प्रगट होती है। वह पर्याय है। स्वभाव परिणति। अनन्त गुणोंकी अनन्त पर्याय प्रगट होनी, वह उसकी पर्याय है। उसमें गुण अनन्त हैं।

सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन जहाँ तो उसके सर्व गुणोंकी पर्याय स्वरूप तरफ जाती है अर्थात सम्यकरूप-से परिणमती है। द्रव्य-गुण-पर्याय आत्माकी स्वानुभूति हो तो पर्याय स्वयं स्वरूपरूप परिणमती है। विभावमें-से पलटकर स्वभावरूप परिणमती है। द्रव्य-गुण-पर्याय उस प्रकार परिणमते हैं। द्रव्य और गुण तो अनादिअनन्त शाश्वत है।

मुमुक्षुः- प्रथम एकत्वबुद्धिका अभाव हो, उस जातका...

समाधानः- परपदार्थमें उसे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती है। इसलिये रागमें वह कोई न कोई निमित्तको स्वयं ग्रहण कर ही लेता है कि ये मुझे ठीक है और ये मुझे ठीक नहीं है। इसप्रकार स्वयं ही ग्रहण करता रहता है। कोई भी निमित्तको (ग्रहण कर लेता है कि) ये ठीक है और ये ठीक नहीं है। इस प्रकार रागमें किसीको ग्रहण करके स्वयं राग और द्वेषकी वैसी परिणति करता रहता है। एकत्वबुद्धि है तबतक ऐसा