२५६ यदि जाने तो उसे ज्ञप्तिक्रिया प्रगट हुयी है। नहीं तो ज्ञप्तिक्रिया नहीं है। "जो जाने सो जाननहारा'। जो जानता है वह करता नहीं और जो करता है वह जानता नहीं। परके साथ एकत्वबुद्धिके कारण मैं करुँ, मैं करुँ ऐसा होता है। यथार्थ जाने तो उसे ज्ञप्तिक्रिया यथार्थ होती है। बाकी स्थूलरूप-से तो सब जानता ही रहता है।
जाननेका उसका स्वभाव है, वह कहीं नाश नहीं जाता। जानता तो है, परन्तु स्वयंको नहीं जानता है। वह जानना यथार्थ नहीं है। अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको नहीं जानता, इसलिये वह दूसेरका भी यथार्थ नहीं जानता।
मुमुक्षुः- मोक्षार्थीको प्रयोग करना चाहिये। तो वह ध्यान यानी भेदज्ञानका अभ्यास?
समाधानः- भेदज्ञानका अभ्यास वह ध्यान। क्योंकि पहले वह अभ्यास करे। यद्यपि यथार्थ ध्यान तो ज्ञायककी धारा प्रगट हो और उसमें लीनता करे तो यथार्थ ध्यान हो। परन्तु पहले उसका अभ्यास होता है। भेदज्ञानका अभ्यासरूप ध्यान करना है। क्योंकि अपना अस्तित्व ग्रहण किये बिना कहाँ स्थिर होगा? जहाँ स्थिर होना है, वह जो द्रव्य है उस द्रव्यको ग्रहण करे। जो शाश्वत द्रव्य है उसमें स्थिर हुआ जाय। पर्याय पर स्थिर नहीं हुआ जाता। पर्याय तो पलटती रहती है। स्थिर तो द्रव्यको पहचाने तो हुआ जाता है। परन्तु द्रव्यको पीछाननेका प्रयत्न करे, उस जातके अभ्यासका प्रयत्न करे। तो उस जातका ध्यान होता है।
भेदज्ञानका अभ्यास करनेका प्रयत्न करे कि मैं भिन्न हूँ। ये विभाव मैं नहीं हूँ, शरीर मैं नहीं हूँ। उसका क्षण-क्षणमें भिन्न पडनेका अभ्यास करे। उसकी एकाग्रता करे कि मैं यह ज्ञायक हूँ। ऐसा ध्यान करे कि मैं यह ज्ञायक हूँ, चैतन्य हूँ, महिमावंत शुद्धात्मा हूँ। ऐसा भाव-से उसे यथार्थ पहिचानकर करे। विकल्परूप-से ऐसे शुष्कपने नहीं, परन्तु ज्ञायक महिमावंत है, ऐसे उसे ग्रहण करके बारंबार उसका ध्यान करे तो वह अभ्यासरूप ध्यान है। बारंबार उसीका ध्यान करता रहे।
यथार्थ परिणतिरूप तो उसे जब ज्ञायककी धारा प्रगट हो, तब उसे यथार्थ परिणतिरूप ध्यान होता है। यह ध्यान वह अभ्यासरूप करे। समझ बिनाका ध्यान तरंगरूप हो जाता है। इसलिये अपनेको ग्रहण करके, चैतन्यको पहचानकर उसमें एकाग्रता करे कि मैं यह चैतन्य हूँ, विभाव-से भिन्न हूँ। ऐसे बार-बार भिन्न पडनेका अभ्यास करे और स्वयंको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे।
स्वयंको भिन्न करना, विभाव-से स्वयंको भिन्न करना, उसका अभ्यास करना। उसकी परिणतिरूप जिसे सम्यग्दर्शन हो, वह भी भेदज्ञान-से ही मुक्ति पाते हैं। और वह भेदज्ञान ही आखिर तक रहता है। उसे यथार्थ होता है। उस भेदज्ञानसे ही स्वानुभूति होती है। और उस भेदज्ञानकी उग्रतामें ही उसे लीनता बढानी है। फिर लीनता बढाता है,