पर्याय परिणमे अथवा दूसरे द्रव्यकी पर्याय दूसरे द्रव्यमें परिणमे ऐसा नहीं है। जिस द्रव्यकी जो पर्याय हो, उस द्रव्यके आश्रय-से ही पर्याय परिणमती है। ऐसा उसका सम्बन्ध उसमें-से टूटता नहीं। वह स्वतः होने पर भी, वह स्वतंत्र होने पर भी, उसका सम्बन्ध जो द्रव्यके साथ है, वह पर्यायका द्रव्यके साथका सम्बन्ध छूटता नहीं।
द्रव्यदृष्टिके विषयमें वह भेद आता नहीं। द्रव्यदृष्टिका विषय अखण्ड है। इसलिये उसमें वह भेद आते नहीं। तो भी वह पर्याय कोई अपेक्षा-से,... द्रव्यमें गुणका भेद, पर्यायका भेद है, और उस भेदके कारण पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। और द्रव्य कोई पर्याय रहित नहीं होता। (यदि सर्वथा) कूटस्थ हो तो उसे साधना नहीं हो, कोई वेदन नहीं हो, संसार-मोक्षकी कोई अवस्था नहीं। अतः स्वतंत्र कहनेका अर्थ यह है कि वह स्वतःसिद्ध अकारण पारिणामिक है। इसलिये उसका स्वरूप स्वतंत्र बतानेके लिये है। परन्तु जहाँ द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, उसमें वह नहीं होती। तो भी साधनामें वह दोनों साथमें होते हैं। द्रव्यदृष्टि मुख्य होती है और जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है, उसे उस साधनाके साथ पर्यायकी शुद्धि होती है।
वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है कि जिसकी द्रव्य पर दृष्टि हो, यथार्थपने दृष्टि हो उसे ही वह पर्याय शुद्धरूप साथमें परिणमती है। और जिसे यथार्थ ज्ञान साथमें हो वह अंशी और अंशका करवाता है। अंशी स्वयं अखण्ड है। उसमें अनन्त गुण और अनन्त पर्याय है। परन्तु वह एक अंश है। उस अंशका सामर्थ्य कहीं अंशी जितना नहीं है। तो भी वह स्वतः है। वह स्वतः परिणमती है और स्वतंत्र है। ऐसा कहनेका आशय है।
द्रव्यके विषयमें आता नहीं है, इसलिये उसे भिन्न करके उसे ऐसा कहनेमें आता है कि वह स्वतंत्र परिणमती है। द्रव्यदृष्टिका विषय नहीं है और वह स्वतः है इसलिये। और उसे स्वतंत्र कहनेमें एक पर्याय भी है और द्रव्यके साथ पर्याय होती है। ऐसा भी साबित होता है। पर्यायको स्वतंत्र कहनेमें पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है, ऐसा उसमेंसे साबित होता है। पर्यायकी स्वतंत्रता बतानेमें पर्याय नहीं है ऐसा साबित नहीं होता। परन्तु पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है। परन्तु वह स्वतंत्र स्वतःसिद्ध है। पर्याय भिन्न है ऐसा उसका अर्थ उसमें नहीं है। उसमेंसे पर्याय साबित होती है।
पर्यायको स्वतंत्र बतानेमें कोई ऐसा मानता हो कि पर्याय है ही नहीं (तो ऐसा नहीं है)। पर्यायको स्वतंत्र बतानेमें पर्याय है और पर्याय द्रव्यका एक भाग है और वह स्वतंत्र परिणमती है। और द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतामें उसे गौण करनेमें आता है। परन्तु पर्याय, जिस जातिका द्रव्य हो, उस जातिकी पर्याय द्रव्यके आश्रय-से परिणमती है। उसमें बिलकूट टूकडे नहीं हो जाते, वह अपेक्षा साथमें समझनी है। यथार्थ समझे तो