२८६ ही साधनाका प्रारंभ होता है।
मुमुक्षुः- ... ज्ञानीको इच्छा नहीं होने-से परिग्रह नहीं है। इसलिये आहारको ग्रहते नहीं। और साथमें दर्पणमें उठ रहे प्रतिबिंबकी भाँति आहारको जानते हैं। यहाँ दर्पणका दृष्टान्त देकर कहा, उसमें क्या आशय समझना?
समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा-से वह मात्र जानता है। आहारको ग्रहण नहीं करता है, आहारको छोडता नहीं। ज्ञायकमें कोई आहार नहीं है। ज्ञायक उसे ग्रहण नहीं करता है, मात्र जानता है। जैसे प्रतिबिंबमें कुछ ग्रहण करना या छोडना ऐसा प्रतिबिंबमें होता नहीं, वैसे ज्ञायकको कुछ ग्रहण नहीं करता और कुछ छोडता नहीं है। द्रव्यदृष्टिमें वह ज्ञायक ज्ञायक ही रहता है।
ज्ञातामें कुछ आता नहीं। और जो आहार है वह, उसकी चारित्रकी अल्पता है, इसलिये पुरुषार्थकी कमजोरी-से होता है, वह उसके ज्ञानमें है। परन्तु ज्ञायककी दृष्टिमें, द्रव्यदृष्टिमें वह मात्र उसे प्रतिबिंबकी भाँति जानता ही है। प्रतिबिंब अर्थात उसे ग्रहता नहीं और छोडता नहीं। ऐसा उसका आशय है, उसमें दूसरा कोई आशय नहीं है।
द्रव्यदृष्टिमें तो, द्रव्यदृष्टिका स्वरूप या द्रव्यका स्वरूप आप जितना कहो उतना ऊँचे- से ऊँचा होता है। तो भी उसमें-से पर्याय निकल नहीं जाती। उसमें पुरुषार्थकी मन्दता, साधनाकी पर्याय आदि सब साथमें होता है। द्रव्यदृष्टिका जितना ऊँचा कहो, उतना स्वरूप द्रव्यदृष्टिमें आता है। और वस्तुका स्वरूप ऐसा है। तो भी उसमें-से पर्याय जाती नहीं। पुरुषार्थकी मन्दता होती है। चारित्रकी दशा अधूरी है, वह ज्ञानीके ज्ञानमें है। उसे पामर जानता है। ज्ञायककी अपेक्षा-से प्रभु होने पर भी पर्यायमें वह पामर जानता है। इसलिये वह प्रतिबिंब होने पर भी उसमें कुछ है ही नहीं, ऐसा द्रव्यकी अपेक्षा- से उसका अर्थ है। बाकी उसकी चारित्रकी मन्दता है, वह उसे बराबर जानता है। ऐसा उसका अर्थ है।
समाधानः- ... जो निर्णय किया कि ये शरीर भिन्न है, विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा निर्णय किया। सच्ची समझमात्र नहीं, परन्तु अन्दर ज्ञायककी परिणति होनी चाहिये, अन्दर भेदज्ञान होना चाहिये। स्वयं अन्दर-से भेदज्ञानरूप परिणमे और वह भेदज्ञानकी परिणति ज्ञाताकी उग्रता करके उसमें लीनता करे तो उसमें वह प्रयत्न आ जाता है।
स्वयं प्रतीति करके अन्दर लीनताका प्रयत्न करनेका रहता है। अलग जातका नहीं रहता है, लीनताका करनेका प्रयत्न रहता है। समझन यानी मात्र समझन करे उतना ही नहीं, उसके साथ भेदज्ञान हो। भेदज्ञानकी उग्रता हो, उसमें लीनताकी उग्रता हो वह प्रयत्न रहता है। भिन्न प्रयत्न नहीं, भेदज्ञानकी उग्रताका प्रयत्न, उसमें लीनताका