२८८ और सहज उसमें लीनता-स्वयं उसमें स्थिर हो जाय। दूसरी भाषामें कहो तो स्थिर हो जाना, ज्ञायकमें स्थिर हो जाना। बाहर उपयोग है, वह उपयोग स्वरूपमें लीन हो जाना, स्थिर हो जाना। ऐसी सहज दशा हो तो निर्विकल्प दशा होती है।
... अटकना नहीं है, परन्तु सहज दशा प्रगट करके, सहज उसकी लीनता सहज ध्यान करता है। उस जातका एकाग्र होता है। सम्यग्दर्शन होता है, वहाँ श्रद्धाका बल और आंशिक एकाग्रता अर्थात स्वरूपाचरण चारित्र साथमें प्रगट होता है। वह चारित्र अलग है। उस जातकी एकाग्रता, उस जातका ध्यान प्रगट होता है तो निर्विकल्प दशा होती है। श्रद्धाके बल द्वारा एकाग्रता होती है। और वह श्रद्धा ऐसी सहज दशावाली होती है। अंतरमें-से ज्ञायकको ग्रहण करके स्वरूपका आश्रय, अस्तित्व ग्रहण करके अंतरमें होता है।
समाधानः- ... परप्रकाशक तो मात्र ये सब बाहरका जानता है। और जहाँ वीतराग होता है, वहाँ स्वयंको तो जानता है, परन्तु दूसरेमें उसे जाना नहीं पडता, वह तो अपनेमें रहकर, अपने क्षेत्रमें रहकर अपने आत्माका अनुभव करे और लोकालोक सहज ज्ञात होता है। ज्ञान निर्मल है। निर्मल ज्ञान हुआ इसलिये ज्यादा जानता है। जैसे निर्मल ज्ञान हो, वैसे ज्यादा जाने। आता है न? अवधिज्ञानी, केवलज्ञानी वे सब ज्यादा जानते हैं। और अज्ञानी तो गृहादि स्थूल (जानते हैं)। जितना दिखाई दे, नेत्र- से दिखाई दे उतना ही देखते हैं। ज्ञान अन्दर-से आत्माको उघाड हुआ है जानते हैं ऐसा नहीं है। ऊलटा ज्यादा जानते हैं।
कितने जीवको तो, आता है न? उस भवका जाने, इस भवका जाने, वह सब तो परप्रकाशक हुआ तो अंतर-से जानता है न? केवलज्ञानीको तो एकदम निर्मलता हो गयी। इसलिये वे तो अनन्त भवोंका, सबके द्रव्य-गुण-पर्याय, नर्क, स्वर्ग, सर्व द्रव्य- गुण-पर्याय केवलज्ञानी वीतराग हुए इसलिये ज्यादा ज्ञात होता है। वे वहाँ जाते नहीं है, वहाँ उपयोग भी नहीं देते। परन्तु ज्ञात होता है। परन्तु उन्हें राग-द्वेष नहीं होते। मात्र जानते हैं, वीतराग रहते हैं।
केवलज्ञान हो तो ज्यादा जानते हैं। अन्दर स्वरूपकी अनुभूति करे और सहज ज्ञात हो जाता है। जैसे दर्पण निर्मल है, उसमें सहज झलकता है, वैसे उनको सहज ज्ञात होता है, केवलज्ञानीको। केवलज्ञानीको पूर्ण ज्ञात होता है। अज्ञानी तो मात्र जूठा जानता है। एकत्व होकर जानता है। गृहादि सब मानों एकमेक मिश्र होकर जानता है। शरीरादि मैं हूँ, ऐसा हो गया है। कुछ भिन्न ज्ञात नहीं होता।
ज्ञान हो तब भिन्न जानता है कि मैं भिन्न, ये शरीर भिन्न, ये सब भिन्न है। सच्चा तो अंतर आत्माको पहचाने वह सब जानता है। स्वको जाने वह सब जानता