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महापुरुष है, आत्माकी बातें करते हैं, स्वानुभूतिका मार्ग बताते हैं, ऐसा सब होता है। तीर्थंकर हैं, ऐसा सब विचार करनेका कहाँ था। एक तो छोटी उम्र थी, उसमें तो सत्य क्या है, यह नक्की करना था। उसमें सत्य क्या यह नक्की करनेमें, आत्माका करनेमें (मैं रहती थी)। गुरुदेव महापुरुष हैं, ऐसा होता है। वस वक्त तीर्थंकर है, तीर्थंकर जैसा उनका कार्य है, ऐसे विचारका वहाँ कहाँ अवकाश था? अभी तो सब साधनाके कार्य चलते थे। यह सब तो अंतरसे आया है, सहज आया है।
गुरुदेव तीर्थंकर (द्रव्य हैं), इसको उनको स्वयंको आश्चर्य लगता था। यह तो अंतरसे आया है। ऐसा कोई विचार भी नहीं किया था और ऐसा मुझे लगता था, ऐसा भी नहीं है। अथवा गुरुदेवने कहा हो, ऐसा भी नहीं है। कुछ नहीं है। (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) महाविदेहक्षेत्रमें गये हैं, यह सुना था, यह सब सुना था। लेकिन अभी वर्तमानमें इतना प्रचलित है कि इस शास्त्रमें आता है और उसमें आता है, ऐसा नहीं था। कुछ कथा आदिके बारेमें मालूम था और गुरुदेव कहते हैं कि महाविदेह क्षेत्रमें गये हैं। इतना मालूम था। लेकिन उस प्रकारके विचार आदिका कोई अवकाश नहीं था। मैं तो शास्त्र पढती थी। शास्त्र समझनेमें ध्यान था। इसप्रकारके विचार नहीं थे। उन वक्त भगवानका मन्दिर नहीं था, कुछ नहीं था कि कोई लंगे विचार आये, कोई पूजा-भक्तिके प्रसंग नहीं थे। भक्ति की या ऐसा कुछ किया कि जिससे याद आये अथवा तीर्थंकर भगवानकी सब स्फुरणा हो, पूजा-भक्ति की कि ये तीर्थंकर भगवान (हैं), गुरुदेव उनका जीव है, तो भी विचार आये, ऐसे भी प्रसंग नहीं थे। मन्दिर नहीं था, पूजा-भक्तिके प्रसंग नहीं थे, कुछ नहीं था। मात्र शास्त्र पढते थे और आत्माका ध्यान करते थे। दूसरे कोई प्रसंग नहीं थे। गुरुदेवका प्रवचन सुनते थे। गुरुदेव शास्त्रके क्या अर्थ करते हैं? मात्र वही ध्यान रहता था कि शास्त्रका रहस्य (क्या खोलते हैं)? शास्त्र तो पहली बार पढते थे, गुरुदेव उसका क्या अर्थ करते हैं? उस अर्थमें ध्यान होता था कि इस पंक्तिका क्या अर्थ किया और इस पंक्तिका क्या अर्थ करते हैं?
...कोई उत्सव नहीं थे या कोई तीर्थंकर भगवानकी भक्ति करनेके प्रसंग थे, शुरूआतमें कुछ नहीं था। स्थानकवासी संप्रदायमेंसे निकले थे तो उसप्रकारका कुछ था ही नहीं। भगवानका समवसरण होता है और तीर्थंकर भगवान होते हैं, इतना मालूम था। भगवानकी वाणी और ऐसा सब मालूम था। भगवानके तीन गढ और अष्ट भूमि इत्यादि कुछ मालूम नहीं था। (संवत) १९९३-९४की सालमें कुछ मालूम नहीं था। फिर सब पढा। फिर १९९७में भगवानकी प्रतिष्ठा हुई। तब भगवानकी पूजा, भक्ति आदिके प्रसंग हुए। १९९८की सालमें समवसरणमें कुन्दकुन्दाचार्यको विराजमना किये। वह सब बादमें हुआ। पहले कुछ नहीं था कि उसके कोई विचार आये।