३०६ मैं हूँ और यह विभाव है वह मैं नहीं हूँ। उसके बाद पुरुषार्थकी गति-से भेदज्ञानकी धारा प्रगट करे तो वह भेदज्ञानकी धारा सहज होते-होते उसे विकल्प छूटे बिना नहीं रहता। परन्तु उतनी स्वयंको अन्दरसे अपनी परिणति जागे तो होता है। भावना हो, परन्तु उस जातकी पुरुषार्थकी गति स्वयं प्रगट करे तो होता है।
मुमुक्षुः- .. तो ही विकल्प टूटे या इन्द्रिय ज्ञान-से विकल्प टूटता है?
समाधानः- अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक ही स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञान है। ज्ञायकको ग्रहण करे। बाहर-से इससे जाना, यह जाना, वह जाना, जाना वह ज्ञान ऐसे नहीं। परन्तु मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ, ज्ञायकरूप परिणमित ज्ञायक, परिणमित अर्थात प्रगट परिणमित नहीं हुआ है, ज्ञानस्वभावी है, उस स्वभावको ग्रहण करे तो प्रगट हो। यह ज्ञान, यह ज्ञान ऐसे भेद नहीं, परन्तु ज्ञानस्वभाव ही जो वस्तुका है, उसे ग्रहण करे तो होता है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें ज्ञायक-ज्ञायक शब्द जगह-जगह आता है। तो ज्ञायकके आश्रय- से ही सब प्राप्त हो जानेवाला है या दूसरा कुछ करनेका है?
समाधानः- ज्ञायकके आश्रय-से ही सब प्रगट होनेवाला है। परन्तु ज्ञायकका आश्रय लेनेके लिये उसकी पहिचान करनी पडे। ज्ञायक कौन है? ज्ञायकका स्वभाव क्या है? ये विभाव कौन? उसका लक्षण पहिचानना पडे। और ज्ञायकको ग्रहण करनेके लिये गुरुदेव क्या कहते हैं? गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? वह प्रगट न हो तबतक, देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा आये, गुरुदेवने क्या कहा है उस तत्त्वका विचार करे, वह सब आये, परन्तु ग्रहण एक ज्ञायकको करना है।
ज्ञायकको ग्रहण करने-से सब ग्रहण होता है। ज्ञायक अर्थात स्वयं। स्वयंका अस्तित्व ज्ञायक ग्रहण किया तो विभाव-से भिन्न पडता है और भेदज्ञान होता है। और उस भेदज्ञानकी उग्रता, ज्ञायककी उग्रता होते-होते उसीमें लीनता बढाता हुआ, उसकी प्रतीति, उसका ज्ञान और उसमें लीनता, वह करते-करते उसीमें आगे जाता है। ज्ञायक ग्रहण करनेका एक ही मार्ग है। उसके लिये तत्त्व विचार, उतनी गहरी रुचि, गुरुदेव क्या कहते हैं उसका आशय ग्रहण करना, वह सब रहता है। ध्येय एक ज्ञायकको ग्रहण करनेका होना चाहिये।
मुमुक्षुः- आपको जब अनुभूति हुयी तब आप पण्डितजीको बारंबार लिखते थे कि अब इतना बाकी है, इतना बाकी है, इतना बाकी है, किसके आधार-से? ज्ञायकके आधार-से आप कहते थे?
समाधानः- अन्दर-से मुझे ऐसा लगता था। अन्दर ऐसा लगता था। यह ज्ञान कोई अलग है, अन्दर कोई अलग आत्मा है। आत्मा भिन्न है, ऐसा हुआ करता