३०८ किसीकी दुकान पर माल रखना हो तो वह दुकान कैसी है, ऐसा पहले तू नक्की कर। फिर तू पूरी दुकानकी खातावही देखने जा तो ऐेसे कोई दिखाता नहीं। वह ऐसा कहता है कि तू अमुक लक्षणों-से नक्की कर। गुरुदेव कहते थे कि यह यथार्थ है। ऐसे गुरुदेव एक सत्पुरुष है, ऐसा नक्की करनेके लिये उनकी वाणी, उनकी मुद्रा अमुक प्रकार-से नक्की कर। फिर उनकी दशा क्या है, वह ग्रहण करनेकी तेरी पूरी शक्ति न हो तो अर्पणता करना।
मुमुक्षुः- अंतिम प्रश्न है। सामान्य पर दृष्टि और भेदज्ञानमें क्या अंतर है, यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- जिसकी सामान्य पर दृष्टि गयी कि मैं सामान्य एक वस्तु हूँ। उसमें भेद पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि तो अखण्ड एक द्रव्य पर है। अपना अस्तित्व ज्ञायक पर दृष्टि है, परन्तु दृष्टिके साथ भेदज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। दृष्टि और ज्ञान दोनों साथ होते हैैं।
एक सामान्य पर दृष्टि और विभाव-से भिन्न पडे। अपने पर जहाँ दृष्टि गयी तो विभाव-से भिन्न पडता है। दोनों साथ ही रहते हैं। स्वयं सामान्यको ग्रहण करे, अस्तित्वको ग्रहण करे उसमें अन्य-से नास्ति उसमें साथ आ जाती है। स्वयंको ग्रहण किया इसलिये मैं विभाव-से भिन्न हूँ, ऐसा साथमें आ जाता है। दृष्टि कहीं भेद नहीं करती, परन्तु ज्ञान सब जानता है। ज्ञानमें सब आ जाता है कि मैं ये विभाव-से भिन्न और ये मेरा चैतन्यका अस्तित्व भिन्न है। ऐसे दृष्टि और ज्ञान साथमें ही रहते हैं। दृष्टि एक सामान्यको ग्रहण करती है, ज्ञान दोनोंको ग्रहण कर लेता है। दोनों साथ-साथ ही होते हैं। जिसकी दृष्टि सम्यक हो, उसका ज्ञान सम्यक होता है। दोनों साथ रहते हैं।
मुमुक्षुः- पहले दृष्टि सम्यक हो, बादमें ज्ञान? समाधानः- दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें ही सम्यक होते हैं। उसमें क्रम नहीं पडता। परन्तु दृष्टि मुख्य है इसलिये दृष्टिको मुख्य कहनेमें आता है। बाकी दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें होते हैं। उसमें क्रम नहीं होता, दोनों साथमें होते हैं।