मुमुक्षुः- द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म, तीनों-से एकसाथ भिन्न पडना। तो उन दोनोंमें क्या अंतर है?
समाधानः- अंतरमें जहाँ एकत्वबुद्धि रहे, विभावके साथ एकत्वबुद्धि है वहाँ सब परपदार्थके साथ एकत्वबुद्धि है। स्थूलरूप-से एकत्व नहीं मानता है, परन्तु उसमें एकत्वबुद्धि (है)। एक भी परपदार्थके (साथ एकत्वबुद्ध है), तबतक सर्वके साथ एकत्वबुद्धि है। वह भिन्न नहीं पडा। क्योंकि राग है वह अपना स्वभाव नहीं है। द्रव्यकर्मके निमित्त- से भावकर्मरूप वह स्वयं परिणमता है, परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है।
द्रव्यदृष्टि-से देखो तो वह विभाव भी अपने-से भिन्न है। इसलिये उसके साथ जहाँ एकत्वबुद्धि है, एक तरफ जहाँ खडा है, पर तरफ दृष्टि करके, उसे ऐसा लगे कि मैं सबसे भिन्न पड गया और विभावके साथ एकत्वबुद्धि है, उतना ही बाकी है। परन्तु उसका उपयोग जहाँ एक जगह एकत्वबुद्धि कर रहा है, तो हर जगह वह एकत्वबुद्धि खडी ही है, ऐसा आ जाता है। और जब छूटा तब सब-से छूटा ही है। विभाव- से छूटे इसलिये सबसे छूट जाता है।
परन्तु स्थूलरूप-से शरीरादि-से, बाह्य परद्रव्यों-से उसे भिन्न पडा है ऐसा लगता है, परन्तु वह वास्तविकरूप-से भिन्न नहीं पडा है। क्योंकि दृष्टि जहाँ पर तरफ है, एक भी परपदार्थके साथ जहाँ एकत्वबुद्धि है, वहाँ सर्व पर उसमें आ ही जाते हैं।
मुमुक्षुः- आपका कहना ऐसा है कि विभावमें जहाँ दृष्टि है, वहाँ सब परमें दृष्टि है ही।
समाधानः- पर तरफ दृष्टि है ही। उसकी दृष्टिकी दिशा ही पर तरफ है। दृष्टिकी दिशा स्व तरफ नहीं आयी है, स्वको ग्रहण नहीं किया है, उसकी दृष्टिकी दिशा बदली नहीं है और यदि दृष्टिकी दिशा पर तरफ है तो उसमें सर्व पर आ ही जाते हैं।
समाधानः- वास्तवमें नहीं है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान होनेपर अन्दर विभाव-से भी भेदज्ञान हो जाता है।
समाधानः- अन्दर भेदज्ञान हुआ उसे सबसे (एकत्व) छूट जाता है। दृष्टिने जहाँ