३१० दिशा बदली, अपना स्वपदार्थका आश्रय ग्रहण किया, वहाँ दिशा बदल गयी तो उसे सबसे दिशा बदल जाती है। एक तरफ-पर तरफ उसकी दिशा खडी है तो उसमें सब पर आ जाते हैं।
मुमुक्षुः- विभाव पर जबतक दृष्टि है, तबतक पर ऊपर उसे दृष्टि है।
समाधानः- हाँ, पर ऊपर दृष्टि है।
मुमुक्षुः- वह ज्ञान स्थूल है, इसलिये उसे ख्यालमें नहीं आता है।
समाधानः- ख्याल नहीं आता है। वैराग्य करे कि परपदार्थ मेरे नहीं है। ये सब घर, मकान, कुटुम्ब आदि मेरा नहीं है। ऐसा वैराग्य तो जीव अनेक बार करता है। ये शरीरादि परपदार्थ शरीर भी मेरा नहीं है। वह भी पर है। ऐसा विचार करे, विचार- से भिन्न पडे, परन्तु उसकी परिणति है वह एकत्व कर रही है। तबतक एकत्व है ही। विभाव-विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि है तो सबके साथ है ही।
उसे शरीरमें कुछ हो तो उसे एकत्वबुद्धि विकल्पके साथ है। विचार करे कि मैं शरीर-से भिन्न हूँ, परन्तु जो सहज भेदज्ञान रहना चाहिये वह उसे नहीं रहता है। इसलिये वह विचार-से भिन्न पडता है, इसलिये सहज परिणति नहीं है। इसलिये उसे वास्तविक भेदज्ञानकी परिणति नहीं है।
मुुमुक्षुः- दूसरी तरह-से कहें तो ठगाता है। समाधानः- दूसरी भाषामें कहें तो। परन्तु भावनामें वह नहीं कर सकता है इसलिये स्थूलरूप-से मैं शरीर-से भिन्न हूँ, ऐसे उसकी भावना करता रहे। विकल्प-से भिन्न हूँ, ऐसी भावना करता है। परन्तु परिणति भिन्न नहीं हुयी है।
मुुमुक्षुः- इस ओर-से विचार करे तो बार-बार सुनते हैं कि अनन्त शक्तिका पिण्ड है। और एक गुण भी जिसे कहे कि एक ज्ञानगुण है, तो ज्ञानत्व क्या है, वह भी ख्यालमें नहीं आता है। तो ऐसी परिस्थितिमें उसे काम कैसे करना?
समाधानः- ज्ञानगुण लक्ष्यमें नहीं आता है। वह उसे यथार्थरूप-से देखता नहीं है, इसलिये नहीं आता है। उसकी शक्ति अनन्त है। अपनेको ग्रहण कर सके ऐसा है। परन्तु उसे नहीं ग्रहण करनेका कारण, उसकी दृष्टि और उपयोग पर तरफ है। इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है। नहीं तो ग्रहण करनेकी अनन्त शक्ति उसमें है। स्वयं अपनेको ग्रहण करे और स्वयं अपनेमें परिणमे तो वह अपने रूप हो जाय, ऐसी उसमें अनन्त शक्ति है।
पहले आंशिक रूपसे होता है, फिर पूर्ण होता है। ऐसी शक्ति, उतना बल उसमें हैै। स्वयं अपनी तरफ पलट सके ऐसा है। अनन्त बल, अनन्त शक्ति आत्मामें है, आत्मामें अनन्त गुण है। एक चैतन्यको ग्रहण किया उसमें उसे स्वभावरूप-से सब परिणमन