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होने लगता है। सभी गुण अपनी ओर परिणमते हैं।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें एक वचन आता है कि परपदार्थको जानते हुए मानों उसको जानता हूँ, ऐसा वेदन कर लेता है। अब, यहाँ विचार ऐसा है कि ज्ञान मेरेमें-से होता है, वह बात उसे उत्पन्न करनी है, अपने वेदनेमें उस बातको आगे लानी है। तो उसे कैसा प्रयत्न वहाँ करना चाहिये?
समाधानः- परपदार्थको जाने, परन्तु वह जाननेवाला है कौन? पदार्थको जाना वह जाननेवाला कौन है? उसका मूल कहाँ है? उस मूलको ग्रहण करने तरफ उसकी शक्ति ग्रहण करने तरफ, उसकी खोज (चले कि) उसका मूल कहाँ है? परपदार्थको जाना वह तो ज्ञेय है। तो उस ज्ञेयको जाननेवाला कौन है? आता है न? जो प्रकाश है, प्रकाशके किरण। परन्तु वह किरण किसके है? कहाँ-से आये हैैं?
जो ज्ञान है वह जानता है। सब ज्ञात होता है वह खण्ड-खण्ड जानता है। परन्तु वह जाननेवाला कौन है? उसका मूल कहाँ है? मूल तरफ दृष्टि उसकी दृष्टि जानी चाहिये। उसका मूल कहाँ है? उसका तल कहाँ है कि जिसमें-से ये ज्ञानकी पर्याय परिणमती है? उसके मूल तरफ उसकी दृष्टि जानी चाहिये। ज्ञानको मैंने जाना, ऐसे जान लिया परन्तु जाननेवाला है कौन? ये ज्ञान आता है कहाँ-से? ज्ञेय ऐसा नहीं कहता है कि तू मुझे जान, ऐसा वह नहीं कहता है। स्वयं जानता है। तो वह जाननेवाला है कौन? उसका मूल कहाँ है?
मुमुक्षुः- तर्क-से तो ख्यालमें आता है कि पर पदार्थ है वह बाहर है, वेदन है वह यहाँ हो रहा है, जानना यहाँ हो रहा है। ऐसा तो ख्यालमें आता है। वह जो जानना यहाँ हो रहा है, तो यहाँ हो रहा है वह मुझे मेरा जानना हो रहा है, परपदार्थ द्वारा नहीं होता है, अपितु मेरे द्वारा वह जानना होता है, ऐसा उसके भावमें पकडाना चाहिये, उसके लिये उसका कैसा प्रयत्न होना चाहिये?
समाधानः- बारंबार गहराईमें ऊतरकर अपने स्वभावको ग्रहण करना चाहिये कि ये स्वभाव मेरा है और ये स्वभाव मेरा नहीं है। इस तरह गहराईमें ऊतरकर बारंबार क्षण-क्षणमें उसकी लगनी एवं महिमा लगाकर बारंबार उसको ग्रहण करना चाहिये। सब सर्वस्व मेरेमें ही है, बाहर कहीं नहीं है। उतनी अन्दर प्रतीति लाकर, उतनी महिमा लाकर उसकी जरूरत लगे तो वह अन्दर गहराईमें जाय। जरूरत इसीकी है, बाकी कुछ जरूरत नहीं है। इसलिये मैं मेरा स्वभाव है उसीको ग्रहण करुँ। उतना गहराईमें जाकर स्वभाव कहाँ है और किसके आश्रय-से रहा है, उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करे।
मुमुक्षुः- उसकी सच्ची जरूरत लगे।